वह अब बहुत कम सुनाई पड़ती हैं। दिल्ली जैसे शहर में, अभी कुछ वर्षों पहले तक, लोदी गार्डन और अन्य बड़े पार्कों में मोर अच्छी-खासी संख्या में दिखाई पड़ते थे। अक्सर वातावरण उनकी बोली से गूंज उठता था। सभी पक्षियों के बीच उन्हीं में यह क्षमता है कि वे तैरा दें अपनी बोली को दूर-दूर तक। अपने बचपन के दिनों की वह गुंजायमान ‘बोली’ मानों अब भी सुनाई दे जाती है, जब मोरों की बोली की कहीं चर्चा होती है। वर्षा ऋतु में तो वह रह-रह कर गूंजती रहती थी। एक बोलना शुरू करता था तो दूसरा मानों उसका प्रति-उत्तर देता था। बोली की एक लड़ी ही बन जाती थी बागों में। वह हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। पर धीरे-धीरे हमने उसे शहरों-कस्बों से बहिष्कृत किया है। अब बड़े शहर में या छोटे, उसकी बोली कहीं से सुनाई पड़ती है, तो एक सुखद अचरज होता है। उसकी याद आती है, जब उसका कोई चित्र दिखाई पड़ जाता है या किसी लड़के-लड़की का नाम सुन पड़ता है- मयूर / मयूराक्षी। मोर की अपनी सुंदरता है। बोली और चाल सुंदर है, संगीतमयी है। पंख सुंदर हैं। हमारे शास्त्रीय नृत्यों में उसकी चाल को स्थान भी मिला है। वह कविताओं में है। ‘दादुर मोर, पपीहे बोले’! वर्षा ऋतु का वर्णन उसके बिना पूरा नहीं होता रहा है। वह कृष्ण के माथे का सौंदर्य है और ‘मिनेयेचर’ चित्रों की हमारी चित्र-परंपरा में उसे एक प्रमुख स्थान मिला है। वह जहां भी रहा है, मानो इस बात का संकेत या प्रतीक भी रहा है कि पर्यावरण ठीक-ठाक है।
अब वह राजस्थान के नगरों-कस्बों में भी बहुत कम हो गया है। पहले तो दिन-रात उसकी बोली गूंजती थी बीकानेर, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर आदि में। पर पिछले कुछ वर्ष यही बता रहे हैं कि ‘मोर दिन’ अब नहीं रहे। ‘मोर रातें’ भी नहीं रही। हां, उसकी बोली सुबह, दोपहर में और शामों या रातों को भी विकल और चीरती हुई सुनाई पड़ती थी। वह पौराणिक है, ऐतिहासिक है। पर कितनी तेजी से वह ख्रुद इति-हास बनता जा रहा है। दुख होता है।
उसके पंखों में अनेक रंग हैं। वह जमीन पर दौड़ता है, भागता है। कभी-कभी धीर गति से किसी डाल, मुंडेर, चारदिवारी पर बैठना भी उसे आता है। राजस्थान के महल-दुमहले, राजप्रासाद, दुर्ग- सभी उससे ध्वनिमय, सौंदर्यमय प्रतीत होते रहे हैं। अब इन सभी की कमी बहुत सालती है। वह सचमुच, सजीव तो इन सबमें रहता था, उसे खिड़कियों-दरवाजे छज्जों में उत्कीर्ण किया जाता था। पिछले दिनों बीकानेर में एक पुराने महल को परिवर्तित किए गए होटल में मैं मुग्धभाव से खिड़कियों पर मोरों के छोटे-छोटे घेरों को कुछ देर तक देखता रह गया। वहीं जब यह चर्चा हुई कि मोर अब बहुत कम हो गए हैं, तो मुझे बताया गया कि यहां कम हो गए हैं, पर नागौर वाले इलाके में अब भी बहुत हैं।
कई अन्य जगहों पर भी मोरों का हाल पूछने पर ऐसे ही उत्तर मिलते हैं। उनके दूर होते जाने के या इस तरह के उत्तर कि हां, ‘यहां तो नहीं हैं, पर वहां जाएं तो देखने को मिल सकते हैं।’ हमने आसपास के पशु-पक्षियों के निवास तो उजाड़े ही हैं, वनों-बागों को भी इतना उजाड़ा है कि वे ‘जाएं तो कहां जाएं’ वाली हालत में पहुंच गए हैं। उनके अपने ‘निवास’ उजड़ने या उजड़ते जाने का एक प्रमाण तो यही है कि वे भाग कर शहरों-कस्बों और मुख्य मार्गों में आ जाते हैं। कई बार घिर कर या कहें घेर कर मारे भी जाते हैं।
हर शहर फैलता गया है। आवश्यकता से अधिक गाड़ियों की संख्या भी बढ़ती गई है। जनाकीर्ण भी होते गए हैं हमारे शहर-कस्बे। ऐसे में, पक्षियों के लिए ‘धरती’ नहीं बची है। कहीं-कहीं तो उनके उड़ने वाला आकाश भी गंदला हो चुका है। जहरीली हवा और धुएं से भरा, जैसे कि दिल्ली का आकाश। पक्षियों का जो साहचर्य हमारे दैनिक जीवन से पहले था, वह अब कहां रहा! न मोर दिखाई पड़ते हैं, न तोतों के वे झुंड, जो आकाश में एक सुंदर हरी लकीर खींच दिया करते थे- हमारी सुबह-शाम को रंगजनित सौंदर्य दिया करते थे। हमारे आसपास को अपनी बोली, अपने पंखों की फड़फड़ाहट से चंचल बनाते थे। मधुर भी।
जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियां याद आती हैं- ‘खग-कुल कुल-सा बोल रहा/ किसलय का अंचल डोल रहा/ लो यह लतिका भी भर लाई/ मधुमुकल नवल रस गागरी/ बीती विबावरी जाग री!’ बहुत-सी कविताएं लिखी गई हैं पक्षी प्रसंग से तमाम भारतीय भाषाओं में। इसीलिए कि वे हमारे साथ रहे हैं। हम उन्हें इस तरह भी पहचानते रहे हैं कि दिन या रात के किस प्रहर में अधिक सुनाई पड़ती है किसी पक्षी विशेष की मधुर या ‘कर्णकटु’ आवाज! उसका ‘कर्णकटु’ होना भी हमें खलता नहीं रहा है, क्योंकि उसमें आश्वस्ति थी, किसी पक्षी के होने की! और मोर की गुंजायमान बोली, भला हमने कब नहीं सुनी किसी ऋतु या प्रहर में, आती हुई और हमें सरसाती हुई!