संतोष उत्सुक
कुछ दिन पहले एक संबंधी का जिस वक्त फोन आया, उस वक्त मैं कार चला रहा था। इसलिए फोन नहीं सुन सका। रात का समय था, सोचा कल सुबह फोन कर लूंगा। अगले दिन उन्हें दो-तीन बार फोन किया तो उनका मोबाइल बंद या पहुंच के बाहर बताता रहा। शाम को फिर किया तो उनसे बात हुई। वे बोले, घर में छोटे बच्चे आए हुए हैं। फोन उनके पास था, इसलिए मैं बाद में देख सका कि आपका फोन आया था। मैंने पूछा कि आप अपना फोन अपने पास क्यों नहीं रखते, कोई जरूरी संदेश आए तो! उन्होंने हंसते हुए कहा कि ‘क्या करें… बच्चे नहीं छोड़ते।’ काफी समय पहले अभिभावक छोटे बच्चों का ध्यान बंटाने के लिए टीवी चला देते थे और माताएं घर का काम करती रहती थीं। लेकिन पिछले कुछ सालों से मोबाइल हमारे जीवन का खतरनाक तरीके से हिस्सा बन चुका है। इसे बच्चों के हाथों में दे दिया गया है। दरअसल, टीवी और खेल उपकरणों की जगह मोबाइल ने ले ली है। आमतौर पर बच्चे अब शारीरिक विकास से जुड़े खेल नहीं खेलते। उनका संसार मोबाइल हो चुका है। हम सबने मिल कर पढ़ाई, नौकरी जैसी व्यस्तताओं के कारण बचपन के आंगन से बचपन को भगा दिया है।
ज्यादा सुविधाएं कमाने के चक्कर में बच्चों का स्वास्थ्य, नुकसान पहुंचाने वाले डिब्बाबंद जंक फूड के हवाले कर दिया है। यों बच्चों को पढ़ाई और दूसरी गतिविधियों से ही फुर्सत नहीं, लेकिन समय मिलते ही मोबाइल उन्हें जकड़ लेता है। अभिभावक फेसबुक पढ़ते रहते हैं और बच्चों के प्रश्नों से बचने के लिए उनके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं। बाकी काम बच्चे खुद कर लेते हैं। चिप्स चबाते हुए धीरे-धीरे इसकी लत बच्चे को लग जाती है। उधर व्यस्त माता-पिता को पता नहीं चलता कि उनके घर का बिगड़ता बचपन कितने सवाल खड़े कर रहा है, उनके लिए और खुद के लिए भी। वे इस बात पर गर्व महसूस करने लगते हैं कि हमारा बच्चा बहुत तेज है। अभी से मोबाइल बहुत अच्छे से चलाने लगा है। कुछ कहते हैं कि हमसे ज्यादा तो हमारे बच्चे को आता है। वह तो हमें भी सिखा देता है। ऐसा लगने लगा है कि आजकल बचपन में बुद्धिमान होने का सबसे शानदार प्रमाण मोबाइल चलाना ही रह गया है। धीरे नहीं, बहुत तेजी से बच्चे अच्छे से पढ़ने के बहाने, इंटरनेट का पैक हथिया लेते हैं और यूट्यूब जैसी सुविधाओं के सहारे बचपन में ही युवा होने लगते हैं। बचपन को बचपन न रहने देने के लिए अभिभावक सीधे जिम्मेदार हैं।
इस संदर्भ में जिन विदेशियों की हम नकल कर रहे हैं, उनके जीवन-प्रबंधन पर एक नजर डालना जरूरी है। दिलचस्प यह है कि जिस कंपनी ने दुनिया को आइफोन और आइ-पैड दिया, उसके सह-संस्थापक ने अपने बच्चों को कभी उसे हाथ तक नहीं लगाने दिया। जी हां, ‘एप्पल’ के स्टीव जॉब्स ने अपने घर पर टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की सीमा तय कर रखी है। उन्हें जरूर आभास रहा होगा कि जब कोई इंसान स्मार्टफोन का लती हो जाता है तो समाज से दूर हो जाता है। दुनिया की दिग्गज प्रौद्योगिकी कंपनियों में काम करने वाले लोग प्रौद्योगिकी से दूरी रख कर ही अपने बच्चों की परवरिश कर रहे हैं। बच्चों को गैर-तकनीकी स्कूलों में भेजा जा रहा है, जहां कंप्यूटर के बजाय किताबों पर आधारित शिक्षा पर जोर दिया जाता है।
अनुशासन की सीमा में कोई भी काम किया जाए तो नुकसान नहीं करता। लेकिन हमारे यहां स्थिति बिल्कुल उलट है और अब हाथ से निकल रही है। यहां तो अभिभावक ही फोन नहीं छोड़ते, बच्चे उनसे ही सीखेंगे। क्या हमने कभी विदेशियों से उनकी अच्छी बातें, आदतें सीखीं? हम अक्सर बच्चों को पहले गलत सुविधाओं के नाम पर जी भर कर बिगाड़ते हैं, लंबे समय तक उनकी जिद और गलत आदतों को मनोरंजन समझते रहते हैं। कहते रहते हैं कि कोई बात नहीं बच्चे हैं। फिर जब स्थिति हाथ से निकल रही होती है या निकल चुकी होती है तो घोषणा कर देते हैं कि आजकल के बच्चे बहुत खराब होते हैं।
यह कितना प्रशंसनीय है कि माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने अपने बच्चों को चौदह साल की उम्र तक मोबाइल नहीं दिया था। कुछ साल पहले जब उनकी बेटी वीडियो गेम खेलने के प्रति आसक्त होने लगी तो उन्होंने घर पर बच्चों के लिए समय-सीमा तय कर दी। उनके घर में कोई भी खाने की मेज पर मोबाइल प्रयोग नहीं कर सकता। वे रात के खाने के समय बच्चों से सिर्फ इतिहास और नई किताबों पर चर्चा करते हैं। क्या हम ऐसी शुरुआत अपने जीवन में कर सकते हैं? सुखद यह होगा कि हर अभिभावक बदलाव की शुरुआत करे। अभिभावक सही तरीके से सही संवाद शुरू करेंगे तो बच्चे भी मोबाइल की गोद में नहीं बैठेंगे।