एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सामाजिक मूल्यों के हस्तांतरण की प्रक्रिया बहुत दिलचस्प है। समाज अपने तरीके से खुद को बदलता रहता है। अक्सर इतनी धीमी गति से कि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त आदमी रेखांकित नहीं कर पाता। एक पीढ़ी अपनी अपूर्ण इच्छाओं, कार्यभारों को अगली पीढ़ी को हस्तगत कर देती है। इस लिहाज से देखें तो मां और बेटी का रिश्ता काफी महीन तंतुओं से बना होता है। अक्सर मांएं अपनी मानसिक संभावनाओं, इच्छाओं को अपनी बेटी में फलीभूत होते देखना चाहती हैं।
हाल ही में मुझे एक ऐसा काम सौंपा गया जो मैंने पहले कभी नहीं किया था। मेरी एक छात्रा ने बीए कर लिया था और उसके घर वाले अब और आगे पढ़ाने को तैयार न थे। वे उसकी शादी कर देना चाहते थे, जबकि छात्रा एमए में दाखिला लेना चाहती थी। वह चाहती थी कि किसी भी तरह मैं उसके घर वालों को राजी करूं। मुझे अपनी उस प्रतिभाशाली छात्रा की जिद के आगे झुकना पड़ा। यमुना पार की सड़कों, गलियों को पार करते हुए जब मैं उसके घर पहुंचा तो उसकी मां चावल के आटे से सेवियां बनाने का काम कर रही थी। पूछने पर उन्होंने बताया कि आसपास के घरों में यह बहुप्रचलित कुटीर उद्योग है। मैंने सीधे मुद्दे की बात की। कहा कि आपकी बेटी बहुत प्रतिभाशाली है। उसने बीए बहुत अच्छे अंकों के साथ पास किया है। अगर उसे आगे पढ़ने का मौका मिल जाए तो वह अपनी जिंदगी में बहुत कुछ कर सकती है। मां का जवाब आशा के अनुकूल ही था- ‘बाहर का माहौल ठीक नहीं है। हम उतना खर्च नहीं कर सकते। उससे छोटे बच्चों को भी पढ़ाना है? ये ‘निपट’ जाए तो बोझ कम हो जाएगा। सबसे बड़ी बाधा यह कि घर के सभी फैसले लड़की के चाचा लेते हैं और वे नहीं मानेंगे।’
मैंने कुछ ठहर कर बदले हुए वक्त का हवाला दिया और कहा कि अब पुराना समय नहीं रह गया है आंटी। अब हजारों की संख्या में लड़कियां पढ़ने जाती हैं। कभी दिल्ली विश्वविद्यालय में आइए। बदले हुए समय को देखिए। वहां पढ़ने वाली ही नहीं, पढ़ाने और शोध करने वाली लड़कियां भी हैं। आपकी बेटी को अगर मौका दिया जाए तो वह भी पढ़ा सकती है। कोई भी बड़ा काम कर सकती है। मैंने यह भी कहा कि पढ़ाई का खर्चा इतना ज्यादा नहीं है। बाद में इसे स्कॉलरशिप भी मिल सकती है।
कुछ देर से ही सही, पर मैं मां को पहले सपनों की दुनिया में और फिर उनके अतीत में ले जाने में कामयाब हो गया। धीरे-धीरे वे यादों की उस दुनिया में पहुंच गर्इं जब वे लड़की थीं। तब उनकी पढ़ने की भरपूर इच्छा थी। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के पुराने आर्ट्स फैकल्टी के चित्र बताए। तब विवेकानंद प्रतिमा के इर्द-गिर्द हरी-भरी घास से सज्जित वृत्ताकार पार्क था। पार्क चार कोणों में बंटा था। सर्दी के दिनों में वहां फूलों की रंगीनियत हुआ करती थी और वे मित्रों के साथ जी खोल कर हंसती थीं। उनके बहुत सारे अरमान थे। उस दौर में निम्न-मध्यम वर्ग में व्याप्त सामाजिक मान्यताओं और चलन के मुताबिक उनके अरमानों की परवाह न करते हुए शादी कर दी गई। दूसरे शब्दों में, उनके अरमानों की हत्या कर दी गई। उन्होंने आटर््स फैकल्टी में मौजूद बांसों के झुरमुट के बारे में पूछा। फिर ‘अपनी बेटी को मैं जरूर पढ़ाऊंगी’ -उनका दृढ़ वाक्य था।
छात्रा के चाचा को मनाने में अपेक्षा से कम मेहनत करनी पड़ी। मैंने परिवार के पालन-पोषण में उनकी भूमिका की प्रशंसा की। कहा कि आप जैसे जिम्मेदार लोगों की समाज में बहुत कमी है। आप बड़े हैं और अपनी जिंदगी जी चुके हैं। हमें अपने बच्चों के अरमानों का पूरा करना है। जिस परिवार में बच्चे पढ़ने से वंचित रह जाएं, वह खुशहाल परिवार नहीं हो सकता। शिक्षा के बगैर हम समाज में शांति और प्रेम से नहीं रह सकते। बच्चों की पढ़ाई कराना हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है। …मां के जोर देने पर उन्होंने सशर्त दो साल और पढ़ने देने की हामी भरी।
उनके इस आश्वासन के बाद अपनी छात्रा के चेहरे पर एकाएक उमड़ी खुशी के घनघोर काल पनियल मेघ का मैं वर्णन करने में असमर्थ हूं। उस खुशी को रूपकों-बिंबों में प्रकट करने के लिए एक महाकाव्य सरीखा कलेवर चाहिए। कितनी छोटी-सी बात है- पढ़ाई करने की ‘इजाजत’ देना… और एकाएक उमड़ा उत्साह का महासागर। वे लोग कितने बेरहम होंगे जो लड़कियों को ऐसी खुशी से, उनके पढ़ाई के अधिकार से जबरन महरूम रखते हैं। बेशक वह लड़की अपनी मां की पीढ़ी के अधूरे सपनों और अरमानों को पूरा करेगी। इस क्रम में वह सामाजिक विकास की उस प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगी, जिससे समाज और लोकतांत्रिक, और मानवीय हो सके।

मनोज कुमार