अशोक कुमार
कुछ बातें जीवन के क्रम में होती हैं और पुरानी हो जाने पर भी स्मृतियों के दायरे में कायम रहती हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए, जब डाक बाबू ने दरवाजे पर दस्तक दी तो स्पीड-पोस्ट का लिफाफा प्राप्त कर मैंने उनका कुशलक्षेम हर बार की तरह पूछा और उनसे मिठाई खाने का आग्रह किया। वे आभार और धन्यवाद व्यक्त करते हुए कहने लगे कि ‘भाई साहब, देर हो जाएगी। अभी कई घरों में राखी का डाक पहुंचाना है। कई भाई लोग प्रतीक्षारत होंगे।’ डाक बाबू की इस कर्तव्यपरायणता के करुण कथन ने मुझे कुछ पल के लिए तरंगित कर दिया।
याद है कि पिताजी कलकत्ते (अब कोलकाता) से जब पत्र, मनीऑर्डर या बीमा राशि घर खर्च के लिए हर माह रुपए भेजते थे तो उसकी प्रतीक्षा कई दिनों पहले से बनी रहती थी। नियत समय पर इसे आने में देर होने पर गांव के डाकघर के पोस्टमास्टर से सहमे कदम और हल्के स्वर में पूछने पर कभी वे सहज भाव से नहीं आने की बात कह देते थे, जबकि भीड़ से घिरी स्थिति में वे झुंझलाते हुए कहते थे कि पैसे आएंगे तो तुम्हारे घर ही जाएगा… हम थोड़े रख लेंगे। उदास मन लिए मां को जब यह बताता तो वे कुछ पल के लिए चिंतित हो जाती थीं, क्योंकि हर महीने आने वाले गृह खर्चे की अपनी तय बजट हुआ करती थी।
ऐसा ही कुछ हाल रिश्तेदारों से आने वाले चिट्ठी-पत्री की भी होती थी। कभी-कभी गांव के किसी भी टोले में अगर कोई ‘कलकतिया’ आए तो उनके साथ आए पत्र के साथ हल्की गठरी में पिताजी द्वारा भेजे गए खर्चे की रकम, मौसमी फल, बिस्कुट, कपड़े, खजूर और कागज में भेजे गए नाप के अनुसार हम भाई-बहन के हवाई चप्पल आने की उम्मीद लगाए बड़े आतुर और चंचल चित्त से उस पैकेट को घर लेकर आते थे। पैकेट खोलने पर आई सामग्री में सबसे पहले हाथी, घोड़े, शेर, ऊंट आदि के चिह्न के बने बिस्कुट अपने हिस्से में लेने के लिए भाई-बहन में छीना-झपटी जरूर होती थी।
गांव में अवस्थित डाक घरों के स्वरूप और उसकी कार्यसूची में आज व्यापक वृद्धि हुई है, लेकिन साठ-सत्तर वर्ष पहले डाक घरों से जीवन की संवाद संवेदनाएं जिस गहराई से जुड़ी रहती थीं, वह आज कृत्रिमता के करिश्मे का शिकार दिखता है। अपने पत्र और रुपए आने की प्रतीक्षा पल पहले डाकघर के द्वार से ऐसे युक्त रहा करती थी, मानो वह एक पारिवारिक परिवेश का अहम हिस्सा हो।
संदेश प्रेषण के लिए किसी जमाने में कबूतरों का उपयोग किया जाता था, जबकि राजतंत्रीय व्यवस्था में राजा पीले कागज या विशिष्ट किस्म के कपड़े पर लिखे आपसी संदेश का प्रेषण घुड़सवार दूत के माध्यम से करते थे। बदलते समय ने डाक विभाग के रूप में अनूठी सौगात मिलने के इंतजार करने वालों के लिए ‘डाकिया डाक लाया’ की अद्भुत प्रणाली विकसित की।
कभी डाकिये जिस रास्ते से गुजरते थे, लोग वहां खड़े रह कर अपनी चिट्ठी के बारे में जरूर पूछते थे। चिट्ठी पढ़ने के लिए छीना-झपटी भी होती थी और कभी किसी घर में पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं होने पर डाकिया ही चिट्ठी पढ़ कर सुनाते और अक्सर वैसे घरों से वे ही चिट्ठी का जवाब लिखते भी थे। शर्मीली स्वभाव लिए घूंघट में कुछ महिलाओं द्वारा अपने परदेसी पति को ‘मुन्नी के बाबूजी को पांव लागी’ के संबोधन संदेश डाक बाबू को चिट्ठी में लिखने के आग्रह को पारिवारिक परिवेश में स्नेहिल रूप से बांधे रखता था। यह भाव डाकिये के साथ एक आत्मिक भाव भी दर्शाता था। चिट्ठियों के दौर में अपनों से बहुत कम बात हुआ करती थी।
जवाबी पोस्टकार्ड की भी अपनी भावनात्मक दुनिया हुआ करती थी, जो पत्र प्रेषक की प्रतीक्षा के लिए आतुरता सिद्ध करती थी कि पत्र प्राप्तकर्ता को पोस्टकार्ड क्रय में विलंब और पैसे व्यय का सामना न करना पड़े। गांव-घर में सेवानिवृत्त डाक बाबू पत्र पढ़ने और लेखन के अधिकृत व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। वे घर के सदस्य के रूप में हर पर्व-त्योहार, शादी-विवाह में बड़ी श्रद्धा से आमंत्रित भी किए जाते थे। उन्हें लगभग हर घर के दुख-सुख को जानने-समझने का मौका मिलता था।
शहर हो या ग्रामीण क्षेत्र, कहीं भी किसी की डाक आती है तो आज भी डाकिया अपनी जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं। हमें स्वीकार करना चाहिए कि वे हमारे जीवन की समाचार संसाधन के एक आवश्यक अंग बन चुके हैं। एक ओर ये हमारे जीवन के दुख-सुख के पलों के संसूचन के प्रमुख स्रोत हैं, जबकि हमारे स्वजनों से संवाद बंधन में जोड़ने के सफल सूत्र भी हैं।
डाकिया की दिनचर्या हमें समय पर काम करने का पाठ भी पढ़ाती है, जबकि कर्तव्य निर्वहन का पुनीत संदेश भी प्रदान करती है। जरूरत इस बात की है कि भारतीय सामाजिक जीवन की इस आधारभूत कड़ी को हम अपनी सांवेगिक तरंगों से बांधे रखें, क्योंकि इनके हाथ बांटे पत्र अंशों में सीमा पर डटे हमारे फौजी भाइयों को ‘चिट्ठी आती है जो पूछी जाती है कि घर कब आओगे, लिखो कब आओगे’ का स्नेहिल संदेश प्रवाहित करता है।