प्रभात कुमार
मौजूदा वक्त के संकट ने फिर से आकर समझा दिया कि मौत ‘महबूबा’ है जो एक बार आती है तो साथ लेकर ही जाती है। महामारी ने हमारी जिंदगी में पसर कर जिंदगी के बाद की कई मजबूरियां समाप्त कर दी हैं। दूसरों की जिंदगी पूरी होने के बाद कुछ सामाजिक रिवाज निपटाने के लिए हम कितने औपचारिक होते रहे हैं, यह छिपा नहीं है। कुछ समय पहले एक परिचित की मृत्यु हुई थी। काफी लोग श्मशानघाट पहुंचे थे। उधर सामने चिता बनाई जा रही थी, इधर कुछ दूर हम जान-पहचान के कुछ लोग साथ बैठे थे। उन दिनों चाहे आजकल की तरह बीमार को देखने न जा पाएं, लेकिन लोग श्मशान में दूर जगहों से भी पहुंच जाते थे। दफ्तर से छुट्टी लेकर, दुकान हो तो बंद कर या किसी को बिठा कर आ जाते थे। चिता जल उठने, दाग दिए जाने तक तो बैठते थे। इस बीच लोगों को चंदन की लकड़ी के टुकड़े बांट दिए जाते थे, ताकि दूसरी लकड़ी के टुकड़ों के साथ मिला कर मृतक को लकड़ी देने की रस्म पूरी कर सकें। मेरे साथ बैठे परिचित को दुकान से उनके बेटे का फोन आ रहा था। वह जानना चाहता था कि कितना वक्त और लगेगा। शायद उसे कहीं आवश्यक काम से जाना होगा, इसलिए वह हर दो मिनट बाद फोन कर रहा था। वे उसे बता रहे थे कि बस होने वाला है।
कुछ देर बाद लोगों ने लौटना शुरू कर दिया था। किसी के घर शोक प्रकट करने जाना एक विवशता-सी हो जाती थी। धर्म, जाति, संप्रदाय और क्षेत्र की परंपराओं के अनुसार करना होता था। शोक संवेदना प्रकट करने का भी एक तरीका होता है। नौकरी के दौरान वरिष्ठों के साथ जाते थे। चुप बैठे रहते समय नहीं कटता था। फिर विकास होता गया और शोक प्रकट करने के शुरुआती वाक्यों के बाद यहां-वहां की बातें होने लगती थीं। ऐसा किए जाने बारे अगर मृतक के परिजन को पता चल जाता तो निश्चित ही उन्हें अच्छा नहीं लगता।
पिछले कई बरसों से कम परिचय रखने वालों, दूसरे शहर में रहने वालों और व्यक्तिगत रूप से न जा सकने वालों के लिए फेसबुक या सोशल मीडिया के अन्य मंचों ने काम बहुत आसान और संक्षिप्त कर दिया है। शुरू में यह जरूर अटपटा लगा, लेकिन बाद में यह तरीका सबको सहज, सरल और हर समय उपलब्ध लगा तो कबूल कर लिया गया। ‘आरआइपी’ यानी ‘रेस्ट इन पीस’ का संक्षिप्त लिख दें और दिवंगत को शांति प्राप्त हो जाती है! कुछ समझदार लोग शायद दूसरों की बीमारी या उनका मर जाना ‘पसंद’ करने लगे थे, क्योंकि अनेक दुखदायी सूचनाओं को भी ‘लाइक’ कर दिया जाता था। नकली आंसू, उदास चेहरा सब उपलब्ध हैं। दुख और उदासी भरा भाव बिना अभिनय किए प्रकट करने की सुविधा उपलब्ध हो चुकी है।
सब कुछ डिजिटल होने का फायदा यह हो रहा है कि संवेदनशीलता धीरे-धीरे दफन होती जा रही है। अब कोरोना ने जिंदगी में ठहराव लाकर स्पष्ट संदेश दिया है। लगता है ‘आत्मा’ उतनी परेशान नहीं होती, जितना इंसान होता है। आत्मा पहले भी अकेले जाती थी, अब भी। लेकिन अब शरीर छोड़ने भी गिने-चुने लोग जा पाते हैं। अधिकतर औपचारिकताएं सिकुड़ रही हैं। दुनिया छोड़ कर जाने वाले के घर जाकर शोक प्रकट करने वाले कम हो गए हैं। बल्कि कोरोना के डर ने तो स्थिति और तकलीफदेह बना दी है कि अब कोई शोक संतप्त परिवार के घर जाना नहीं चाहता। ऐसे में सोशल मीडिया बहुत साथ दे रहा है।
कई बार ऐसा लगता है कि महामारी कहीं यह संदेश दे रही है कि जीवन को पुन: सादगी, सरलता और औपचारिकता से दूर होने की जरूरत है। लेकिन दुख की घड़ी में जताई जाने वाली संवेदना भी तो सरलता का उदाहरण है। कथाकार कमलेश्वर की कहानी है- ‘दिल्ली में एक मौत’। तत्कालीन संदर्भ और उनके सच अब ज्यादा कठोर रूप में समाज के कोने-कोने में टहल रहे हैं। किसी ने कहा है कि आज को जिंदगी का आखिर दिन समझ कर जीओ। कोई इस बात से सहमत हो, न हो, लेकिन आज परिस्थितियां इसी विचार को जी रही हैं।
जिंदगी के बाद दिवंगत की आत्मा के लिए की जाने वाली औपचारिकताएं अब गैरजरूरी लगने लगी हैं। भीषण महामारी के कारण बहुत ज्यादा तनाव और बदलाव में फंस चुके वातावरण में इंसान द्वारा यह विचार करना आवश्यक हो गया है, कि क्या आत्मा जैसे शाश्वत तत्त्व का दुनियावी स्वार्थ भरी श्रद्धांजलि से कोई संबंध स्थापित हो सकता है। क्या हमारा कोई भी कर्म श्रद्धांजलि का रूप अख्तियार कर किसी की आत्मा तक पहुंच सकता है?
जाहिर है, हम जहां तक देख और महसूस कर सकते हैं, हम उसी के बारे में कुछ कर पाएंगे। इसलिए स्वार्थी लोगों से भरी दुनिया में अगर कहीं किसी परिवार में मृत्यु के बाद के दुखों के बीच अपनी संवदेनशीलता से बचा सकें तो शायद मनुष्य होने की एक जरूरी शर्त बचा सकेंगे। पिछले कुछ समय में एक भय की वजह से कितना कुछ छिन गया है, हम फिलहाल इसे महसूस कर पाने की हालत में हैं। आगे क्या होगा, नहीं पता, मगर वर्तमान को तो हम थोड़ा संभाल ही सकते हैं।