नीलम सिंह
नए साल का उत्सव एक सामान्य घटना है। हालांकि उम्र के इस पड़ाव पर यह सब आकर्षित नहीं करता, वैचारिक उथल-पुथल जरूर मचा देता है। जब जीवन-कर्म, पाप-पुण्य आदि पर विचार करें तो लगता है, कितना दोगलापन है कि हम जाने वाले का गम नहीं मनाते, पर आने वाले का स्वागत कर रहे हैं। जीवन जीवंतता का नाम है और यही हमें आकर्षित करता है। मगर कभी-कभी समाज की असंवेदनशीलता या अपनी स्वार्थपरकता स्वयं को लज्जित कर जाती है। घटना समान्य है, क्योंकि जन्म-मरण इस पृथ्वी का चलन है।
किसी के घर का चिराग पच्चीस दिसंबर को बुझ गया। गलती किसकी थी पता नहीं, मगर बात घूम-फिर कर आभासी दुनिया पर चली गई। वही अभासी दुनिया, जो बच्चों को अवसाद का शिकार बना रही है। लोग कह रहे हैं, बच्चा अवसाद का शिकार था। मगर दिमाग बार-बार सवाल कर रहा है- क्यों? पिता का बड़ा पद, जीवन में हर प्रकार का सुख, दोस्तों का साथ, सब कुछ तो था। फिर यह अवसाद क्यों था। डाक्टर कहते हैं, यह एक बीमारी है- मानसिक बीमारी। इसका सुख-सुविधा से कुछ लेना-देना नहीं। फिर भी सवाल है कि कुछ तो कारण हर बीमारी का होता है। जड़ मन बार-बार मोबाइल को देखता और अपने सवालों का जवाब खोजता है। खोजते-खोजते न जाने कितने मुस्कराते चेहरे सामने से गुजर जाते हैं। फेसबुक पर कोई जन्मदिन मना रहा है। कोई खाना बना रहा है। हर शख्स मुस्करा रहा है। चहल-पहल मची है। हर तरफ सौंदर्य ही सौंदर्य, खुशियां ही खुशियां हैं।
मन अवसाद से भर गया। लगता है, केवल मैं ही दुखी हूं। मेरे पास सुंदर तन नहीं है। निष्छल मन नहीं है। परिवार में प्यार नहीं है। बच्चा सत्तर प्रतिशत पर अटका है। सब कितने खुश हैं। कितना घूम रहे हैं। मैं दो-तीन साल से कहीं गई ही नहीं। मन वह दुख भूल जाता है, जिसके समाधान की खोज में वह फोन पर जाता है। धीरे-धीरे वह स्वयं के दुख में तैरने लगता है।
मगर जब बीस-तीस साल पीछे जाती हूं, तो पाती हूं कि हमारी मां के पास तो फोन नहीं था। इंटरनेट भी नहीं था। इसलिए उसका दुख इतना बड़ा नहीं था। उसको अपनी साड़ियों की चिंता नहीं थी, क्योंकि कोई उसके आसपास सज-धज कर नहीं बैठा था। उसको सफेद होते बालों की भी चिंता नहीं थी, क्योंकि उम्र का यह सौंदर्य उसे स्वीकार था। उसने योग नहीं किया। वह जिम नहीं गई, मगर स्वस्थ रही। उसकी चिंता उसके चेहरे की झुर्रियों में दिखती है। पर वह आज भी हमसे ज्यादा खुश रहती है। वह दसवीं पास है, मगर जीवन का ज्ञान हमसे कहीं ज्यादा है। वह बस सब स्वीकार करती चली। आज भी उसके पास फेसबुक या इंस्टाग्राम नहीं है। आज भी वह फोन का इस्तेमाल अपने बच्चों के मुस्कराते चेहरे देखने के लिए करती है, न कि दूसरो का सुख।
उसके बाद की पीढ़ी को धीरे-धीरे इस अभासी दुनिया की लत लगी। उस युग में हमने प्रवेश किया था। धीरे-धीरे गिरते-संभलते। मगर एक बार प्रवेश पाते ही हर कोई अंधाधुंध आगे बढ़ने लगा। कोई ज्ञान की गठरी लेकर बैठ गया। कोई गहनों की दुकान। किसी ने खुद को धन्नासेठ बताया, तो किसी ने खुद को शहंशाह। हर कोई अपनी-अपनी दुनिया में खुश, कामयाब और समर्पित। मगर देखने वाली हर आंख स्वयं को नम पाती। बेचैनी एक-दूसरे को पकड़ने की बढ़ती जाती। होड़ ऐसी लगी कि इस दौड़ में बच्चों से लेकर बूढ़े तक सब बराबर हो गए। अवसाद ने हमें भी दबोचा। कुछ बच निकले, कुछ ने राह में दम तोड़ा।
मगर आगे की दुनिया और भयावह है। वह पीढ़ी, जो इसी में जन्मी है, उसने जीवन को अभासी दुनिया के माध्यम से ही जाना है। उसके लिए सुख की परिभाषा पार्टी, अच्छे नंबर, अच्छे कपड़े और अच्छे व्यवहार से शुरू होता है और मां-बाप की डांट, दोस्तों से अनबन, पैसे की कमी अवसाद का कारण बन जाती है।
उनके लिए जीवन एक जुआ है, जिसमें केवल जीत और हार है। बीच का कोई रास्ता नहीं है। इस जीत-हार के बीच में आधी आबादी आती है, वे नहीं जानते। उन्होंने दुनिया को खूबसूरत या बदसूरत देखा है। उनकी दुनिया इन लोगों के बीच में नहीं है। इस आभासी दुनिया का प्यार, जहां वादे हैं, पार्टी है, गिफ्ट है और इन सबको पूरा करने का दबाव हर पीढ़ी से ज्यादा है। ये प्यार जानते हैं। नफरत जानते हैं। ये अपने अधिकारों से परिचित हैं। ये ज्यादा संवेदनशील या ज्यादा कठोर हैं। यह आभासी दुनिया इन्हें सूचनाओं से भर देती है। पर इनके बीच रह जाता है अज्ञान। यह भयावह होती जा रही स्थिति है। एक अवसाद ज्यादा घातक है, सौ बीमारियों से। समय के चेहरे पर जड़ कर तमाचा, निकाल लेना होगा अपनी भावी पीढ़ी को।