शायद अभाव में बीते हमारे मध्यमवर्गीय बचपन की अभी तक बाकी ख्वाहिशों का असर हो, या फिर धीरे-धीरे, हर सीढ़ी पर रुकने और बीते दिनों में हासिल छोटी-छोटी उपलब्धियों का जी-भर कर जश्न मनाने के बाद ही आगे बढ़ने की आदत है कि हमारी आंखों से लेकर दिल तक को आज भी चौंकने की आदत है। लेह की उड़ान में खिड़की वाली सीट की बुकिंग के लिए मैं वेब चेक-इन करा चुकी थी। ऐसा मैंने हवाईअड्डे पर समय बचाने की गरज से नहीं, बल्कि अपने अंदर छिपे बच्चे की खिड़की पर बैठने की जिद की खातिर किया था।

मालूम था कि दिल्ली से लेह के हवाई सफर में हिमालय का भव्य बर्फीला संसार उमड़ पड़ता है, नुकीली चोटियों से सरकते ग्लेशियर और उन ग्लेशियरों की काया से नदियों की धार दिखाई पड़ती है। लेह जाते समय बायीं तरफ और लौटते समय दायीं तरफ की खिड़की चुनने की ‘जद्दोजहद’ मुझे बेहद प्रिय है।
लेकिन इस बार के सफर ने एक अजीब द्वंद्व में डाल दिया। दरअसल, मेरे बराबर की सीटों पर दो नन्ही जान थीं। महानगर से उड़ान भर रहे उन बच्चों में न तो खिड़की से झांकने का रोमांच दिखा मुझे और न हवाईयात्रा का कोई उत्साह। हैरानी न सही, लेकिन अफसोस जरूर हुआ था कि महानगरीय जीवनशैली आज हर किसी को वक्त से पहले, जरूरत से ज्यादा इतना कुछ दे रही है कि ख्वाहिशें पैदा होने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। एक हम हैं कि तीन दशक पुरानी ख्वाहिशों को पूरा करने में आज भी एड़ी-चोटी एक करने में लगे हैं।

अगले दिन दोनों बच्चे अपने मां-बाप के साथ उसी होटल में दिखे, जिसमें हम ठहरे थे। आम पर्यटकों की तरह यह परिवार तीसरे दिन पैंगॉन्ग झील देखने निकल पड़ा था। बच्चे उस दिन भी उत्साहित नहीं दिखे थे मुझे। न तो लग्जरी होटल की भव्यता की चकाचौंध से और न सवेरे के नाश्ते में परोसे गए ढेरों किस्म के व्यंजनों या किसी और बात से। स्मार्टफोन और आइपैड की बड़ी-बड़ी स्क्रीनों में सिर घुसाए बच्चों के लिए स्तोक कांगड़ी की बर्फ से ढकी पहाड़ी और उसके उस पार से रोज उगता सूरज, पहाड़ी की ओट में बसा लद्दाखी गांव या होटल में यहां-वहां आते-जाते दिखते लद्दाखी चोगों में दुबके लोग कोई मायने नहीं रखते थे।

किसी में भी दिलचस्पी नहीं थी उनकी। मशीनी तरीके से कुछ ब्रेड-सैंडविच चबा लेने और जूस-दूध गटक लेने की उनकी दिनचर्या ने मुझे हैरानी में डाल दिया था। माइनस सोलह डिग्री सेल्शियस तापमान में भी होटल में नाश्ते के लिए उपलब्ध बीसियों किस्म के व्यंजन, करीब आधा दर्जन किस्म के फल, दसियों पेय मुझे अचरज में डालने के लिए काफी थे। उस पर कुदरत के खेल और दिन भर में पहाड़ों से लेकर झीलों पर जाने कितनी ही दफा बदलते रंगों से भी मैं हैरान थी। लेकिन वे नन्ही जान न तो हवाईजहाज के पंखों से चौंके थे और न तरह-तरह के व्यंजनों-पकवानों से।
खैर, उनसे मिलने की ठान ली थी मैंने। शायद आमिर खान का रैन्चो स्कूल उन्हें दिलचस्प लगेगा और झील तक आने-जाने के लंबे साहसिक सफर के बाद कुछ रोमांच उनकी आंखों में जरूर तैरता देख पाऊंगी मैं… शायद अब उत्साहित होंगे वे…!

मुझे इन अटकलों से ज्यादा जूझना नहीं पड़ा था। चौथे दिन नाश्ते की टेबल पर बच्चे फिर मिले। खूब टटोलने के बाद भी मैं नहीं जान पाई थी कि वे बच्चे सर्दियों में लद्दाख के इस अजूबे सफर से उत्साहित क्यों नहीं थे। मेरे पास तुलना के लिए अपने वे दिन थे, जब मां के साथ मंगल बाजार जाने को भी हम भाई-बहन उतावले रहते थे। तब हम मां की उस साप्ताहिक हाट-बाजारी के बाद घर आए पॉपकॉर्न से भरे लिफाफे पर टूट पड़ते थे या फिर जब किसी मेहमान को दिए गए क्रीम वाले बिस्कुट के बचे-खुचे पैकेट पर हम झपट पड़ते थे। तब मिठाई के डिब्बे के साथ आया मेहमान हमें देवता समान दिखाई देता था! दूसरी ओर, एक ये बच्चे हैं, जिनमें छुट्टियों के लिए भी कोई उत्साह नहीं था, न कहीं घूमने का, न किसी नई जगह को देखने का। मुझे याद आते हैं गरमियों की छुट्टियों के वे महीने जब इसके मायने नानी-दादी के घर हुआ करते थे और हम उस ‘वेकेशन’ की शान अपने स्कूली दोस्तों के बीच बघारा करते थे।

जरा टटोलिए अपने आसपास के बच्चों को। उनके पेट ही नहीं मन भी भर चुके हैं। ख्वाहिशों के पैदा होने के लिए जिस अभाव की दरकार होती है, वह कहीं बाकी नहीं। बिन मांगे सब कुछ मिल जाने के दिन इस मोड़ तक ले आते हैं, कब सोचा था। बहरहाल, हम आज भी रोमांच की सिहरन महसूसते हैं, आज भी इंतजार के बाद मिले अनुभव का जी-भर कर रस लेते हैं। ख्वाहिशों के इस मेले में जब-तब हाथ आई अपनी अमीरी को लेकर आज भी इतराते हैं और शायद यही वजह है कि इक्कीसवीं सदी की इस ताजा पीढ़ी की बुझती ख्वाहिशों को देख कर अवाक् भी हो जाते हैं।