टीवी धारावाहिक महाभारत के सूत्रधार की गंभीर आवाज में कहे गए शब्द ‘मैं समय हूं’ को कौन भूल सकता है। अपने समय की लोकप्रिय फिल्म ‘वक्त’ के एक विख्यात गीत में साहिर लुधियानवी ने भी बड़ी गंभीरता से समझाया था- ‘आदमी को चाहिए वक्त से डर कर रहे, कौन जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिजाज।’ ऐसी सीखें हम भारतीयों के मन में इस रूप में घर कर गईं कि होनी होकर रहेगी।

परम शक्तिशाली ‘वक्त’ को चादर बना कर हमने अपनी अकर्मण्यता के ऊपर एक आवरण की तरह डाल दिया। ‘समय बड़ा बलवान’ और ‘करम गति टारे नहीं टरे’ गुनगुनाते हुए हमने अपनी हताशाओं से सामंजस्य बैठाना सीख लिया। हर प्रतिकूल परिस्थिति को दार्शनिक ढंग से देखने का यह अंदाज हमें जीवन के उतार-चढ़ाव से निपटने का तरीका तो सिखा सका, लेकिन वक्त के उस स्थूल रूप से पूरी तरह से विमुख कर गया, जिसमें दिन-प्रतिदिन का हिसाब घंटे, मिनट और सेकेंड में रखा जाता है। इसीलिए समय अच्छा चल रहा है या बुरा इसकी विवेचना तो हम खूब कर लेते हैं, लेकिन जो समय ‘कितने बज कर कितने मिनट हो गए हैं’ से पहचाना जाता है, उस वाले वक्त की हमें कोई विशेष चिंता नहीं रहती।

पिछले दिनों देश के विभिन्न भागों में रेल के चक्के चार घंटों तक जाम कर दिए, लेकिन तमाम क्षेत्रीय रेल सेवाओं ने आधिकारिक रूप से घोषणा की कि इस अभियान से रेल सेवाओं पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडा। पड़ता भी कैसे, रेलगाड़ियां चार क्या चौदह घंटे की देरी से भी चलें, रेल प्रशासन और यात्रियों का ध्यान केवल कुछ ‘उच्च श्रेणी’ की राजधानी, शताब्दी या वंदे भारत जैसी गाड़ियों के समय से चलने पर केंद्रित रहता है।

मुझे याद है वह दिन, जब पटना से कानपुर आने वाली महानंदा एक्सप्रेस के छह घंटे देर से आने की सूचना फोन पर मिल गई थी, लेकिन स्टेशन पहुंचने के बाद घोषणाएं होती रहीं और देरी छह से आठ, आठ से दस और दस से बारह घंटों में बदलती रही। मैंने जब भुनभुना कर अपनी भड़ास निकाली तो स्थानीय लोगों ने शांत स्वर में इसे मेरी मूर्खता घोषित कर दिया और कहा कि ‘सब जानते हैं यह ट्रेन महागंदा एक्सप्रेस के नाम से कुख्यात है। इसे आपने चुना ही क्यों!’ हमारी सड़कों पर किसी न किसी कानून से क्षुब्ध लोग आए दिन प्रदर्शन और जुलूस के नाम पर चक्का जाम कर देते हैं।

उसके बिना भी बंगलुरु, दिल्ली आदि महानगरों में सड़कों पर कब कितना जाम लग जाएगा, कोई नहीं जानता। रेलवे स्टेशन, एअरपोर्ट आदि जाने के लिए लोग घंटों पहले घर से निकलते हैं और फिर भी आश्वस्त नहीं हो पाते कि समय से पहुंच पाएंगे। इसी स्थिति का फायदा उठा कर दफ्तरों में देर से आने वाले कर्मचारी सारा इल्जाम यातायात की कठिनाइयों पर थोप पाते हैं। सरकारी दफ्तरों में और निजी संस्थाओं के दफ्तरों में इन बहानों का अलग-अलग तरीके से इलाज किया जाता है। खासतौर पर यह वहां आसानी से संभव हो पाता है, जहां उच्च अधिकारी खुद समय की पाबंदी में विश्वास रखते हों और सही मिसाल सामने रखते हों। समय की पाबंदी की अनदेखी का ही दूसरा पक्ष है अंतिम क्षण की भागदौड़ जो अक्सर दुर्घटनाओं का कारण बनती है।

जनसभाओं में जनता को संबोधित करने के लिए आने वाले नेताओं से और विवाह आदि सामाजिक समारोहों पर अतिथियों से समय पर आने की आशा करने को हमारा समाज मूर्खता समझता है। ऐसे अवसरों पर विक्टोरियायुगीन संस्कारों या सैन्य जीवन के अनुशासन में आबद्ध कोई व्यक्ति समय से आयोजन स्थल पहुंच जाता है तो वहां के रंग-ढंग देख कर सोच में पड़ जाता है कि उसे आयोजन की तारीख के बारे में कोई भ्रम तो नहीं हो गया।

आमतौर पर निमंत्रण में नियत समय पर आयोजन स्थल पर आयोजक स्वयं नहीं दिखाई पड़ते हैं। शादी-ब्याह में वर पक्ष वाले सड़कों पर भांगड़ा करते हुए विवाह स्थल के बाहर नियत समय से घंटों बाद किसी तरह पहुंचते भी हैं तो आयोजन स्थल के अंदर जाने में इतना समय लगाते हैं कि अगले दिन काम पर जाने की चिंता से ग्रस्त अन्य आमंत्रित लोग भोजन या अल्पाहार समाप्त करके चलते बनते हैं। वधू पक्ष के मेहमानों का ऐसा कृत्य पहले अशोभनीय माना जाता था, लेकिन अब सामान्य व्यवहार बन चुका है। फिल्मी दुनिया की तो बात ही निराली है।

कुछ अपवादों को छोड़ कर, बड़ी फिल्मी हस्तियां शूटिंग के सेट पर समय से आना अपनी हतक समझती हैं, भले निर्माता को लाखों की चोट पहुंचे और अन्य कार्मिकों को कितनी ही असुविधा हो। जीवन के हर क्षेत्र में लेट-लतीफी को बड़े आदमी की पहचान समझा जाने लगा है। अदालतें और दफ्तर छोटे-से काम के लिए सारे दिन की आहुति मांगते हैं और सांस्कृतिक, सामाजिक आयोजन मुख्य अतिथि की प्रतीक्षा में किसी सजा की तरह लगते हैं। राष्ट्रपिता गांधीजी की व्यक्तिगत निशानियों में बुराई को न देखने, सुनने और कहने वाले तीन बंदरों की याद सबको है, लेकिन उनके हर पल का हिसाब रखने वाली पॉकेट घड़ी की टिक-टिक कब से चुप लगा चुकी। उसकी याद अब किसको आती है?