क्या कीजिएगा सुन कर! इतने दिनों बाद मिले हैं, नमस्ते-बंदगी हो गई। यही क्या कम है! मैं तो सोच रहा था कितना बदल गए हैं आप। मुंह गाल फुलाए मेरे सामने से गुजर जाते हैं। सैकड़ों-हजारों गुजरते हैं, आप भी वैसा ही करते हैं। अब वह दिन भूल जाइए जब हम आप साथ बैठ कर चाय पीते थे, खाना खाते थे। लेकिन चलिए…! जब आपने मेरा हालचाल पूछा है तो कुछ तो हां-हूं कहना ही पड़ेगा। लोग भीतर-भीतर कष्ट झेल रहे हैं, पूछने पर ‘वेरी फाइन, वेरी फाइन’ बता रहे हैं। मैं उनका चेहरा देख कर कह सकता हूं कि वे ‘वेरी फाइन’ क्या, ‘फाइन’ भी नहीं हैं। दुनियादारी का यह झूठ हमारे लिए अब कितना जरूरी हो गया है।

मैंने उनसे कहा कि चलो मेरे साथ भोजन कर लो। उन्होंने अपने पेट पर हाथ रख थोड़ा थपथपाया और कहा कि नहीं यार, पेट भरा है। अभी तो आधे घंटे पहले खाकर चला हूं। जानता कि मिलते ही मुझसे भोजन के लिए पूछोगे, तो मैं खाता ही नहीं। और सचमुच मैं नहीं खाता। थाल में जो सब्जी थी, उसमें नमक ज्यादा था। मुझे भीतर से गुस्सा आ गया। शादी के बाईस साल हो गए। खाना बनाना, परोसना सब तो वही करती हैं। पर पता नहीं आज दिमाग कहां था।

खैर, अधखाए ही उठ गया। घर छोड़ा तो रास्ते में दयाभाव उपजा, बेचारी का क्या दोष। ज्यादा नमक डालना कोई बड़ा अपराध तो नहीं है। किससे नहीं गलती हो जाती है! संभव है रसोई में बैठी, वह अपने मायके को याद कर रही होगी। मित्र हंसने लगे। देश में इतनी समस्याएं हैं। इतने समाजसेवी, नेतागण समस्याओं के निवारण में लगे हैं। मीडिया वाले अलग नोंक-झोंक में पड़े हैं। क्या करें! कहीं किसान मर रहे हैं, कहीं विद्यार्थी मर रहे हैं, तरह-तरह के अपराध हो रहे हैं। इस भीड़ में नमक की क्या बिसात!

चलो, यह सब तो होता रहेगा। सीताराम जी से जब पूछो तो हंसते हुए झट जवाब दाग देते हैं कि हाल ठीक है, चाल देख ही रहे हैं। मैं भी हंसने लगता हूं। वे सत्तर साल के हैं, हाथ में छड़ी ले रखी है। किसी सीढ़ी पर फिसल पड़े थे। घर में पोता बीमार है। तीन बार अस्पताल ले जा चुके। गांव से दो मेहमान आ गए हैं। शायद इसी को कहते हैं गरीबी में आटा गीला। अपनी लाचारी, बच्चे की बीमारी और ऊपर से मेहमानों की खातिरदारी। इनमें एक वही हैं जो पिछले साल दिल्ली के एक अस्पताल में अपनी आंख दिखाने आए थे। कभी-कभी नाश्ते में देर हो जाती थी। गांव जाकर शिकायत की कि दिनेश शहर जाकर बदल गया है। अपनों को पहचानता नहीं।

सोचा था कि बात करने से मन हलका होता है। मगर शहर में तो ब्लड प्रेशर की गोली खाने से मन हलका होता है। मैंने दिनेश से कहा कि थोड़े दिन गांव आकर रहो। स्वस्थ हो जाओगे। जवाब था- ‘यह आपका भ्रम है। देहात अब वैसे कहां रहे। जिसे देखो वही बीमार। जेब में दवा की पुड़िया और हाथ में सीरप की शीशी। यहां बकरी भी बीमार पड़ जाए तो पूरे गांव में चर्चा का विषय बन जाती है। अलगूराम के खेत में चोरी हो गई। गेहूं के पांच बोझे चोर काट ले गए। एक दूसरे की देखादेखी भी कम नहीं है।

हालचाल पूछते-सुनते क्या आपका मन नहीं ऊबता? देख रहे हैं कि आज देश में समाचारों की भीड़ है। कहीं वीडियो, कहीं मोबाइल, कहीं आप- सभी हालचाल बता रहे हैं। आदमी से लेकर देश-महादेश तक दूसरे का समाचार पूछ रहे हैं। दोस्ती का समाचार है तो तलवारें म्यान में सोती रहती हैं। थोड़ी खटपट हो जाए तो लड़ाई की तैयारी। एक दूसरे की चुनौतियां हवा में लहराने लगती हैं। जुबानी समझौते हो जाते हैं मगर दिल नहीं बदलते। आंख-कान खोल कर देखिए तो हालचाल का असली रूप सामने आ जाता था। हालचाल पचीस-तीस साल पहले भी पूछे जाते थे। जिसने हाल पूछा वह भी संतुष्ट था और हाल बताने वाला भी खुश। तब के हालचाल में खुशियां छिपी रहती थीं।

कल अमुक जी को अमुक जी मिले थे। एक मुकदमा हार गए थे। जब कोई उनका हाल पूछता था दुखी मन से बयान शुरू कर देते थे। सुनने-सुनाने वाले, दोनों हलके मन से विदा होते थे। पढ़ाई के लिए जब लखनऊ वाली ट्रेन में सवार होता था, तब गाड़ी की सीटी बजते ही मेरे बाबूजी कहते थे- ‘बच्चा बाबू, लखनऊ पहुंच कर अपना हालचाल जरूर लिखना।’ तब चिट्ठियां हालचाल ले जाती-आती थीं। आज समय बदल गया तब भी हालचाल का महत्त्व उतना ही बना है। सच्चाई है कि हम बिना हालचाल के आज जी नहीं सकते।

रमाशंकर श्रीवास्तव