अशोक सण्ड

कभी-कभी मेरे दिल में भी खयाल आता है कि बढ़ती उम्र के साथ ही क्यों अतीत-जीवी हो जाता है सत्तर पार वालों का मन! पिछले कई दिनों से आधुनिक ई-मेल में टंकित शब्दों की भीड़ देख कर ध्यान आ ही गया कि कभी हाथ से चिट्ठी लिखना सामान्य और आम बात हुआ करती थी। हमारी पीढ़ी में ऐसा कौन होगा, जिसने चिट्ठी न लिखी हो। जो खुद नहीं लिख पाते थे, वे बोल कर लिखवाते थे। आमतौर पर डाक खानों के बाहर बैठे रहते ऐसे लिखने वाले। कोई गोपनीयता नहीं, कुछ भी छिपाना नहीं। याद आ रही गायिका शारदा सिन्हा के गीत की पंक्तियां- ‘लिखवाए रजमतिया पतिया रोई रोई…’। ये ‘पतिया’ दरअसल पोस्टकार्ड हुआ करता था। कुशल क्षेम के लिए ग्रामीण अशिक्षित अंचल तक का सहारा, जिसमें खीरा सूख गया, ककड़ी सूख गई और बेटवा को पेचिस पड़ रही आदि और कि तुम कब आओगे लिखवा कर ‘देस’ छोड़ कलकत्ता, बंबई बसे बालम की कुशल क्षेम लेती थी बहुरिया। उलाहना भी दिया जाता कि राजी-खुसी का एकठो ‘पोसकारड’ भी नहीं लिख सकते!

इसके समांतर सच यह है कि पोस्टकार्ड साहित्यकारों का भी संवाद सेतु रहा। व्यंग्य के आचार्य शरद जोशी ने लिखा है ‘इनलैंड’ यानी अंतर्देशीय पत्र कुछ कष्ट देते हैं, लिफाफा अभिजात्य वर्ग का प्रतीक माना जाता है और बेचारा पोस्टकार्ड और उस पर लिखी इबारत कुछ इस तरह कि जिसे जो चाहे देख या पढ़ ले। बच्चन जी पत्रों का जवाब देने के लिए पोस्टकार्ड का ही इस्तेमाल करते थे। आत्मीय संबोधन के बाद पहला वाक्य होता था- आपका पत्र मिला ‘ध’। दरअसल, धन्यवाद का सूक्ष्म स्वरूप होता था ये ‘ध’। अपने इस अनुशासन को उन्होंने स्वास्थ्य से पराजित होने से पूर्व तक पूरी आस्था भाव के साथ निभाया।

संवेदनाओं की इस मीठी छुअन का अहसास आज की पीढ़ी क्या जाने? एक अनुभूत सत्य है कि चिट्ठियों में एक अनूठा आकर्षण, बल्कि यों कहें कि एक रहस्य होता था। जिन लोगों ने घर के बाहर पत्र-पेटी यानी लेटर बॉक्स टांग रखे थे, दफ्तर से लौट कर पहले एक उत्सुक नजर उस पर डालते, उसे टटोलते, खाली पाकर भी मन में आशा करवटें लेतीं कि शायद किसी ने निकाल कर सहेज कर रख लिया हो। अंदर आकर पूछने पर कि कोई चिट्ठी आई क्या, और जैसे ही एक बंद लिफाफा हाथ में पकड़ाया जाता तो धड़कनें तेज हो जातीं। भावनाओं को साकार होने, हाथों में लेकर महसूस करने का वह सजीव माध्यम अब गुम हो गया। हाथों में चिट्ठी लेकर पढ़ी नहीं जाती थी, वह रिश्तों को आकार देती थी। ‘सादर प्रणाम’ से शुरू हो कर ‘आपका अपना’ तक बतियाती। अर्थवान बनाती थी। चिट्ठियों की आतुरता ख्याति प्राप्त गीतकार उमाकांत मालवीय जी को डाक घर तक खींच ले जाती। इलाहाबाद के जानसेनगंज स्थित डाकखाने को सीधी सीढ़ियां एक सांस में चढ़ जाते। याद आ रही है उनके गीत की यह टेक- ‘चिट्ठी कि जैसे आईना/ चिट्ठी सरीखा कोई ना/ ये अत्रं कुशलम का नशा/ आया नहीं चिट्ठी रसा।’

चिट्ठी के साथ ही हाशिये पर चला गया डाकिया, जिसके थैले में सहेजी चिट्ठियों को जनाब निदा फाजली साब ने रेखांकित किया था- ‘सीधा सादा डाकिया जादू करे महान/ एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान।’ लेकिन आज फिसल चुकी है हमारे हाथों से चिट्ठियां। अब एक दूसरे से जुड़ने के लिए नए-नए माध्यम और ‘गैजेट’ हैं। भावनाएं यंत्रीकृत हो चुकीं, शब्द टंकित होने लगे। पलक झपकते ही विकलांग और अशुद्ध आधे-अधूरे क्षत वाक्य तैर जाते हैं फोन की स्क्रीन पर। माना कि किसी करिश्मे से कम नहीं ये विज्ञान की प्रगति और चमत्कार। दुनिया भले मुट्ठी में हो गई हो, इसमें चिट्ठी वाली वह उष्मा नहीं जो महज पांच पैसे के पोस्ट कार्ड में थी। आधुनिक संचार माध्यम ने इसे इतिहास के हवाले कर दिया।

एक वह भी समय था जब ‘मेघदूत’ के माध्यम से यक्ष का संदेश कालिदास ने उसकी प्रियतमा तक पहुंचाया था। शैलेंद्र, नीरज, हसरत जयपुरी सरीखे गीतकारों ने ‘चिठिया हो तो हर कोई बांचे भाग न बांचे कोय’, ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज पाती’, ‘चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है’, ‘ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़ कर’ जैसे अनेक फिल्मी गीतों से फिल्म को गति दी। अपनी तमाम उम्र की दौलत का एलान गालिब साब की इन लाइनों में मौजूद- ‘बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला/ चांद तस्वीरें बुतां चंद हसीनों के खुतूत।’

हाथ से कब कलम फिसल गई, पता ही नहीं चला। अब सुबह आंख खुलते ही ‘गुड मॉर्निंग’ का बोध कराने के बाद फोन और लैपटॉप के की-बोर्ड पर अंगुली और अंगूठा सारे दिन थिरकते रहते हैं। शब्दों को नकारते सांकेतिक चिह्नों से भावनाएं व्यक्त की जाती हैं। प्रणाम कौन लिखे दो हथेलियों का चित्र पर्याप्त। सूक्ष्म को सूक्ष्मतर करने में सभी प्रवीण। शब्दों के इस सूक्ष्म स्वरूपों को उनका डिजिटलीकरण होते देख रहे हैं हम। न रहीं भावनाएं, न रहीं शिकायतें। न ही गहरे मौन की अव्यक्त मौन भाषा। भावना शून्य हो गया है मन। बहरहाल, गुलजार की पंक्तियां हैं- ‘बहुत दिन हो गए देखा नहीं ना खत मिला कोई/ बहुत दिन हो गए गए सच्ची!/ तेरी आवाज की बौछार में भीगा नहीं हूं मैं।’