अरविंद दास
हरियाणा के सतलोक आश्रम में रामपाल की गिरफ्तारी को लेकर पुलिस की कार्रवाई का टीवी चैनलों पर शोर था, तभी अचानक पत्रकारों की पिटाई के दृश्य आने लगे थे। लेकिन भाजपा की नई मनोहर लाल खट्टर सरकार की देखरेख में पुलिस की इस अप्रत्याशित और निंदनीय कार्रवाई के खिलाफ एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में रवीश कुमार के कार्यक्रम जैसे एक-दो अपवाद को छोड़ मुख्यधारा के मीडिया में कोई बहस-मुबाहिसा नहीं है। हां, सोशल मीडिया में लोगों ने इस पर चर्चा की, लेकिन चटखारे लेकर…!
भारत में सोशल मीडिया पर जो चर्चा देखी जाती है वह आमतौर पर ‘माई वे’ या ‘हाइ वे’ के बीच बहस के लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ती। पर मुख्यधारा के मीडिया में पुलिस की इस कार्रवाई को लेकर, बहस, प्रतिक्रिया, आलोचना क्यों गायब है? ऐसा क्यों लग रहा है कि सबकी खबर देने वाला मीडिया अपनी खबर देना भूल गया। हाल ही में जब सोनिया गांधी के दामाद और कारोबारी रॉबर्ट वडरा ने एक पत्रकार को जब झिड़का और रिकॉर्ड किया गया फुटेज डिलीट करने को विवश किया तो टेलीविजन चैनलों, अखबारों और सरकार ने मिल कर ठीक ही इस कृत्य की चौतरफा निंदा की थी। पर इस बार न किसी को लोकतंत्र पर हमला दिखा, न ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा। पुलिस से पत्रकारों की पिटाई के बाद भी जिस तरह की शांति छाई रही, उससे यह पंक्ति याद आई- ‘मार खा रोई नहीं!’
लोकतांत्रिक समाज के बने रहने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता एक जरूरी शर्त है। आजाद भारत में मीडिया को वैधता सरकार, समाज और आम लोगों से मिलती रही है। नेहरू के दौर में मीडिया राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अपना सहयोग दे रहा था। पिछले कुछ दशकों में गाहे-बगाहे मीडिया पहरुए की भूमिका में रहा, लेकिन उसकी स्वतंत्र आवाज कहीं दब गई थी। इंदिरा गांधी के शासनकाल में, खासतौर पर आपातकाल के दौरान मुख्यधारा का मीडिया झुक गया, या लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में कहें तो रेंगने लगा था। पर उसके बाद भाषाई पत्रकारिता के उभार से पहली बार मीडिया अपनी पहचान के साथ सत्ता के बरक्स खड़ा होता दिखा। पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के बाद पत्रकारिता पर सरकार का दबदबा कम जरूर हुआ है, पर वह पूंजी की गिरफ्त में आ गया। बाजार के इशारों पर खबरों का उत्पादन होने लगा। अखबारों और चैनलों में खबर और विचार की संस्कृति समकालीन समाज की जरूरतों से कम, ‘ब्रांड’ से ज्यादा परिचालित होने लगी।
इस बार आम चुनाव में राजनीतिक पार्टियों, खासतौर पर भाजपा ने जिस तरह ‘मीडिया मैनेज’ किया, वह अलग अध्ययन का विषय है। इस चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी एक ब्रांड के रूप में उभरे, जिसे मीडिया ने खूब भुनाया। इससे शायद ही कोई इनकार करे कि इस चुनाव में मीडिया के अधिकतर घराने एक सहयोगी राजनीतिक पार्टी की भूमिका में थे! विशेष रूप से खबरिया चैनलों की भूमिका संदिग्ध रही। हालांकि पिछले छह महीने की मोदी सरकार का मुख्यधारा के मीडिया को लेकर जो रवैया है, उससे ऐसा लगता है कि प्रत्यक्ष रूप से सरकार मीडिया के साथ एक निश्चित दूरी बरत रही है और सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय है।
ऐसे में मुख्यधारा का मीडिया अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रहा है कि वह किसके साथ है- राज्य के या समाज के! आम जन से मीडिया की दूरी बढ़ती जा रही है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी वैधता पर ही सवाल खड़े करता है। पिछले छह महीनों में अगर मीडिया की विषय-वस्तु का विश्लेषण करें तो लगता है कि सरकार की नीतियों और कामकाज के तरीकों को लेकर मुख्यधारा के मीडिया के भीतर एक भय और बिन मांगे सरकार के समर्थन का रुख है!
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