कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेमचंद, निराला, श्रीलाल शुक्ल, रेणु के गांव अब वही नहीं रहे। शहर की भीड़ और औद्योगीकरण ने गांव का रंग-रूप बदल दिया है। शहर की तमाम चाक-चिक्य, फैशन, दिखावा, व्यवहार, चालाकियां, धूर्तता, सब कुछ गांव में प्रवेश कर चुका है। कम से कम शहरों के आसपास के गांवों के तालाब, नदियां, पोखर और खेतों को पाट कर मॉल, दुकान खड़े किए जा रहे हैं, नए-नए उद्योग लगाए जा रहे हैं। लेकिन एक सवाल यह भी है कि हम खुद महानगर में रहना पसंद करते हैं। लेकिन जब गांव में जाते हैं तो अपने गांव को उसी पुराने रंग, चाल-ढाल में क्यों देखना चाहते हैं? क्या गांव में रहने वालों को मॉल में ठंडी हवा खाते हुए खरीदारी करने का अधिकार नहीं है? क्या गांववासियों को शहर की सुख-सुविधाओं में जीने का हक नहीं है? क्यों वे गांव में बजबजाती गलियों में रहने पर विवश हों?
जिस भी गांव के पास से कोई एक्सप्रेस-वे या दनदनाती सड़क निकलने वाली है या निकल चुकी है, उस गांव का चेहरा बड़ी तेजी से बदल रहा है। वहां पक्के मकान बन रहे हैं। खेतों की जमीन पर दुकान और मॉल का निर्माण रफ्तार पकड़ चुका है, गाय-भैंसें बेची जा चुकी हैं, गली-मुहल्लों में प्रॉपर्टी डीलर बैठ चुके हैं। गांवों में भी पक्की सड़कें फैलें, इससे किसी को क्या गुरेज होगा! लेकिन इन सबके बीच सड़कों और मॉलों की वजह से अगर हमारी जीवन-पद्धति प्रभावित हो रही हो तो हमें गंभीरता से विचार करना होगा।
जब भी शहर या महानगर का विस्तार गांवों तक हुआ है, उसमें गांवों को कई स्तर पर मूल्य चुकाने पड़े हैं। गांव के लोगों का विस्थापन और शहर में लोगों का आगमन एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है। गांव से शहर और महानगर में बसने के लोभ से बहुत कम लोग बच पाए हैं। जिसके पास थोड़ी भी संभावना और सुविधा है, वे गांव में नहीं रहना चाहते। गांव उनके फैलाव के लिए सीमित आकाश-सा लगते हैं। यह कुछ हद तक ठीक भी हो सकता है, क्योंकि इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि जो सुविधाएं, अवसर हमें शहरों और महानगरों में मिलते हैं, वे गांव की सीमा से बाहर हैं। सामाजिक वजहें अलग बनी हुई हैं। यही कारण रहा है कि गांवों, कस्बों से लोगों का शहर की ओर पलायन जारी है। सभी मां-बाप चाहते हैं कि उनकी औलादें अच्छी तालीम और सुख-सुविधाओं वाली जिंदगी हासिल करें। मेरे पिताजी खुद गांव छोड़ शहर में जा बसे, ताकि बच्चों को शहर की सुविधाएं मिल सकें। हमें अच्छी तालीम मुहैया कराने के लिए उन्होंने खुद फटी धोती पहनना स्वीकार किया। दरअसल, गांवों के सीमित संसाधनों और माध्यम के बीच उड़ान के पंख खुलने मुश्किल से जान पड़ते हैं। इसलिए गांव में रहने और वहां पलायन करने के बीच बहुत बारीक का अंतर होता है।
पिछले दिनों हरिद्वार, डिहरी आॅन सोन, हनुमानगढ़ जाना हुआ। जिन गांवों और शहरों के पास से चौड़े एक्सप्रेस-वे गुजर रहे हैं, वहां की बुनियादी स्थानीय पहचान खत्म हो रही है। उसमें नदी, तालाब, पोखर, खेत आदि शामिल हैं। इसके साथ ही जिस तेजी से गांवों में शहर के संचार माध्यम पांव पसार रहे हैं, उस अनुपात में शिक्षा संस्थान नहीं खुल रहे हैं। शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता उनकी प्राथमिकता में नहीं है। ऐसे में कौन गांव में रहना चाहेगा? कौन अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगाएगा! शायद यही वजह है कि शहर के विस्तार ने गांवों को निगलना शुरू कर चुका है। वह दिन दूर नहीं जब गांव हमारी स्मृतियों का हिस्सा भर हुआ करेंगे। हम किताबों और फिल्मों में गांव देखा-पढ़ा करेंगे।
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