आए दिन हमें यह सुनने को मिलता रहता है कि फलां महिला देश की प्रधानमंत्री बन गर्इं, फलां महिला देश की सबसे बड़ी व सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की अध्यक्ष हैं, फलां महिला किसी कंपनी की सीईओ बन गई हैं आदि। ऐसे तर्क देकर यह साबित करने की पूरी कोशिश की जाती है कि प्रमुख क्षेत्रों में महिलाएं सर्वश्रेष्ठ पदों पर पहुंच चुकी हैं, इसलिए भारत में भी महिलाएं सशक्त हो रही हैं और शक्ति संपन्नीकरण की तरफ बढ़ रही हैं। अक्सर सभी महिलाओं को इसी आधार पर सशक्त मान लिया जाता है। लेकिन यह सब जानते हैं कि इनकी संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकने वाली है और ये बमुश्किल एक या दो फीसद ही है। लेकिन क्या कभी उन अठानबे फीसद महिलाओं के बारे में सोचा जाता है जो अपने अस्तित्व की खोज में और अधिकारों की तलाश में भटकने को मजबूर हैं?

हाल ही में वैश्विक आर्थिक मंच द्वारा जारी किए गए वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक में भारत को 146 देशों में से 133 वें स्थान पर रखा गया है जो भारत में महिलाओं की स्थिति को दर्शाता है। यह सूचकांक यह दिखाता है कि छोटे-छोटे और गरीब देश तक हमसे बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। इसलिए हमें इनसे जुड़ी हुई समस्याओं को बारीकी से समझते हुए उनका निराकरण करने की आवश्यकता है।

हमारे संविधान ने महिलाओं के अधिकारों के लिए भरपूर प्रावधान किए हैं, लेकिन इन प्रावधानों का समुचित लाभ महिलाओं को न मिल पाना कहीं न कहीं समाज और उसमें व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच की वजह से अवरुद्ध हुआ है। हम आज भी यह देखते हैं कि महिलाओं को अपने जीवन में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक- सभी आधारों पर आज भी एक आश्रित के रूप में जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। इन सभी आधारों को बारीकी से देखें तो हम पाते हैं कि अगर कोई महिला राजनीतिक अधिकार प्राप्त करते हुए प्रधान का पद प्राप्त करती है तो वह सिर्फ एक रबर स्टांप के तरीके से कार्य करती है। उसकी असल भूमिका ज्यादातर उसके पति द्वारा ही निभाई जाती है।

राजनीतिक दल भी आधी आबादी की बात करते नजर आते हैं, लेकिन जब प्रतिनिधित्व की बात आती है तो वे भी आधी आबादी के हिसाब से अपने जनप्रतिनिधियों में टिकटों का बंटवारा उस हिसाब से नहीं करते कि महिलाओं को उनकी संख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व मिल सके। इसके अलावा, जो महिलाएं विधानसभा और लोकसभा में पहुंचती हैं, उनकी संख्या भी उतनी नहीं है कि वह महिलाओं के लिए उनकी हिस्सेदारी के हिसाब से प्रतिनिधित्व दे सकें।
स्वदेश कुमार, दिल्ली विवि

लोकतंत्र का तकाजा

लोकतंत्र के इतने वर्षों की यात्रा के बाद भी कइयों के मन में स्वाभाविक-सा सवाल उठता होगा कि क्या हमारा लोकतंत्र सचमुच परिपक्व हुआ है या अभी कसर बाकी है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने अपनी बिहार यात्रा के दौरान कहा था कि हमारे देश में परिपक्व लोकतंत्र है, क्योंकि इस प्रणाली की नींव यहीं पड़ी थी। आखिर परिपक्व लोकतंत्र की निशानी क्या है? दरअसल, किसी देश के लोगों में पर्याप्त मात्रा में नागरिक व्यवहार की समझ विकसित होना ही परिपक्व लोकतंत्र की सबसे बड़ी निशानी है।

अब सवाल उठता है कि यह नागरिक समझ है क्या? दरअसल नागरिक के तौर पर किसी भी देश के लोगों के कुछ अधिकार होते हैं, वहीं कुछ कर्तव्य भी होते हैं। जब वे अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति बराबर मात्रा में सचेत रहते हैं यानी अपने आसपास की समस्याओं के प्रति जागरूक होते हैं, तब समझा जाता है कि देशवासी में नागरिक व्यवहार की उचित समय विकसित हो चुके हैं। तभी देश में परिपक्व लोकतंत्र का होना माना जाएगा। हालांकि परिपक्व लोकतंत्र होने और न होने का जवाब देशवासी को खुद-ब-खुद मिल जाएगा, जब वे खुद को इन मानकों पर परखने का प्रयास करेंगे। सबसे बड़ी बात है कि इस तरह नागरिक समझ विकसित होने मात्र से समाज, देश की अनेक समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाता है।
मुकेश कुमार मनन, पटना</p>