सरकारें जब कोई वादा एक समय सीमा के अंदर पूरा नहीं करती हैं तो उन्हें जन आक्रोश का सामना करना पड़ता है। बहरहाल, एक वादा ऐसा भी है जिसे पूरा करने के लिए आज तक कोई भी सरकार कभी गंभीर नजर नहीं आई। यह वादा है- हिंदी को संपूर्ण रूप से राजभाषा के रूप में आसीन करना। जनता भी इस मामले में कभी उस तरह से सक्रिय नजर नहीं आई जैसे वह समय-समय पर प्याज और टमाटर के भावों में होने वाली बढ़ोतरी के खिलाफ नजर आती है।

तिहत्तर वर्ष बीतने और ग्यारह ‘विश्व हिंदी सम्मलेन’ आयोजित करने के बावजूद आज भी संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी कमोबेश वहीं ठिठकी हुई है, जहां यह उस दिन थी, जब इसे एकमत से राजभाषा के रूप में स्वीकार करने के बाद पंद्रह वर्ष के अंदर पूर्ण रूप से अपनाने की बात कही गई थी।
ऐसा भी नहीं है कि केंद्र की विभिन्न सरकारों ने इस दिशा में कोई कदम न उठाए हों। उन्होंने गृह मंत्रालय में राजभाषा विभाग का सृजन किया।

इस विभाग ने सभी मंत्रालयों में राजभाषा कार्यान्वयन समितियां बनार्इं। इसके साथ ही देश के विभिन्न नगरों में ’नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियों’ का गठन किया गया। विभिन्न सरकारी विभागों में राजभाषा अधिकारियों को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे मंत्रालयों के कामकाज को पूर्ण रूप से हिंदी में करने के लिए समुचित कदम उठाएं। विभागों के प्रशासनिक प्रधानों को राजभाषा संबंधी नियमों के पालन के लिए उत्तरदायी बनाया गया।

बहरहाल, परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि आज भी हिंदी को लेकर पखवाड़े आयोजित करने पड़ रहे हैं। इसमें सिर्फ सरकारों की नहीं, आम लोगों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे हिंदी को इतना समृद्ध बनाएं, ताकि उसमें हमारे युवा चिकित्सा, इंजीनियरी और कानून की उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर सकें। अपने दैनिक जीवन में भी हिंदी का अधिक से अधिक प्रयोग करें। हम जहां बेहद जरूरी हो, तभी अंग्रेजी या किसी दूसरी विदेशी भाषा का उपयोग करें। हिंदी के अखबार और पत्रिकाएं खरीदें। बच्चों को भी हिंदी का सम्यक ज्ञान कराना जरूरी है। हिंदी को लेकर दिखावा न करें, बल्कि इसे शोध और बोध की भाषा बनाने में अपना योगदान दें।
सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली</p>

कबीर की दुनिया

कबीर के अनमोल ज्ञान की दुनिया ऋणी है। सूत कात कर, दो रोटियां खाकर उन्होंने जो दुनिया को अनमोल ज्ञान दिया, वह अन्यत्र दुर्लभ है। अगर मानवता, नैतिकता को समझना है तो कबीर की दोहे रूपी वाणी को समझना होगा। आज हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों रुपए खर्च किया जा रहा है, लेकिन उतना विकास नहीं कर पाया, जितना कबीर ने सहज, सरल हिंदी भाषा में अपने ज्ञान का उपहार दिए।

कबीर एक व्यक्ति होने के बजाय व्यक्तित्व हैं। कबीर जो न हिंदू हैं और न मुसलमान। कबीर, जो दुनियावी होने के बावजूद जाति-धर्म से ऊपर हैं। दुनिया को आईना दिखाते कबीर। समाज में व्याप्त कुरीतियों पर कुठाराघात करते कबीर। एक ऐसी शख्सियत जिस पर हिंदू और मुसलमान, दोनों दावा करते हैं और वे हर तरह के जात-पात से ऊपर उठ गए हैं। जब पूरी दुनिया के लोग मोक्ष के लिए काशी की ओर जाते हैं तो कबीर काशी छोड़ कर मगहर की ओर चले जाते हैं। एक जुलाहे का काम करने वाला शख्स, जिस पर न जाने कितने ही लोग शोध कर चुके हैं… जीवन के यथार्थ को जानने के लिए कबीर को जानना होगा।
प्रसिद्ध यादव, बाबूचक, पटना</p>