आज अन्नदाता अपनी आवाज संसद तक पहुंचाने का भरसक प्रयास कर रहा है और आंदोलनरत है, लेकिन उसको लोकतंत्र विरोधी के रूप में दशार्ने के कुत्सित प्रयास भी कुछ लोगों द्वारा किए जा रहे हैं। लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ ही है ‘लोक’ और ‘तंत्र’, यानी ऐसा तंत्र जो लोगों द्वारा निर्मित हो और उनके हितों के अनुरूप ही संचालित हो। यहां जनता का स्थान सर्वोपरि होता है।

आमतौर पर राजनीति दुनिया के लोगों द्वारा यह भ्रम प्रदर्शित करने का प्रयास किया जाता है कि संसद ही अंतिम तौर पर सर्वोपरि है। यह सही है, लेकिन संसद ‘लोक’ से बनती है। जब राजनीतिकों के निजी हितों पर चोट पड़ती है तो उनका नारा होता है कि हम ‘सड़क से संसद तक’ विरोध करेंगे। ऐसे में अगर किसान अपने हितों की मांग लेकर सड़क पर शांतिपूर्ण तरीके से उतरे है तो उसको मात्र विपक्षी दलों का षड्यंत्र कह कर खारिज कर देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। दूसरे, क्या विपक्ष को विरोध करने का अधिकार नहीं है?

देश की आधी से अधिक आबादी कृषि कार्यों में संलग्न है तो क्या ऐसे में कृषि अधिनियमों की गंभीरता को हमें नहीं समझना चाहिए? क्या कृषि से जुड़ा कोई भी कानून व्यापक विचार-विमर्श की दरकार नहीं रखता? ऐसी कौन-सी जल्दबाजी थी जो किसानों और उनसे जुड़े तंत्रों (जैसे मंडी व्यस्था, खुदरा एवं थोक व्यापारी आदि) से बगैर किसी विचार-विमर्श के ही कानूनों को पारित कर दिया गया।

यहां तक कि संसदीय समितियों को भेज कर अंतिम परीक्षण करने की औपचारिक व्यवस्था का भी अनुपालन नहीं किया गया। ऐसे में अगर किसान अपनी बात रखने के लिए सड़क पर न उतरें तो कहां जाएं? कौन-सा विकल्प है उनके पास अपना विरोध दर्ज कराने का?

यह लोकतंत्र का ढांचा चुनी हुई सरकारों ने ही प्रचलित की है। इतिहास देख लें तो बिना आंदोलन के किसी भी मुद्दे को हमारी सरकारें तब तक गंभीरता से नहीं लेतीं, जब तक की उसके विरोध के सुर सड़क तक नहीं पहुंचते हैं। यह भी सत्य है कि आंदोलन के बहाने अराजकता की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन अभी तक के प्रदर्शन से अन्नदाताओं ने शालीनता और संयम का ही परिचय दिया है और ऐसी ही अपेक्षा उनसे आम जनमानस आगे भी कर रहा है।
’सचिन पंवार, घाटहेड़ा, सहारनपुर, उप्र

प्रदूषण के ठेकेदार

कुछ ठेकेदारों को बहुत ज्यादा लापरवाह और भ्रष्ट कहा जा सकता है जो अपने निहित स्वार्थों के कारण निर्माण कार्यों में उचित सामग्री नहीं लगाते, जिससे अनेक भवन, सड़कें और पुल आदि समय से पहले ही टूट कर बड़े हादसों को निमंत्रण देते हैं।

इनकी लापरवाही से सड़कों-गलियों आदि में वैसे ही लापरवाह तरीके से निर्माण सामग्री रेत, मिट्टी, धूल, सीमेंट और इनके बने हुए मिक्सर तक को सडकों और गलियों में ही छोड़ दिया जाता है, जो लंबे समय तक वैसे ही पड़े रहते हैं। इनसे रास्ता बाधित होने के अलावा दमघोंटू, जानलेवा धूल और धुएं आदि से गंदगी और प्रदूषण फैलता है।

ऐसा लगता है कि ऐसे ठेकेदारों पर संबंधित अधिकारियों का भी कोई नियंत्रण होता। दिल्ली की अधिकतर टूटी सड़कें, गलियां, फुटपाथ, पार्क और खेल के मैदान आदि भी इसी समस्या से ग्रस्त हैं। जाहिर है, सभी सरकारों और विभागों को जनहित में अपना फर्ज सही तरीके से निभाने की जरूरत है। सरकारों से अपेक्षा है कि वे इन सबमें पूरी पारदर्शिता और जिम्मेदारी सुनिश्चित कराएं।
’वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली

छद्म युद्ध

आजादी के बाद से ही पाक से लगी सीमाएं छद्म युद्ध के कारण अशांत बनी हुई हैं। अब तक तीन बार पाक से युद्ध हो चुका है और तीनों बार उसने मुंह की खाई है। सीमा पर भी वह छद्म युद्ध में वह हमेश मुंह की खाता रहा है। लेकिन अब पाकिस्तान अपनी आदत से बाज नहीं आ रहा है। सवाल है कि कब तक यह सब चलता रहेगा और कब तक हमारे वीर जवान और नागरिक शहीद या परेशान होते रहेंगे?
’शकुंतला महेश नेनावा, इंदौर, मप्र