लेकिन इसका वास्तविक प्रसारण आए दिन चुनावों में देखने को मिलता रहता है। कर्नाटक में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में मुफ्त गैस, दूध और भी कुछ देने का वादा किया। देश के अन्य राज्यों में गैस के दाम हजार रुपए के पार है। उन पर भी देश के राजनीतिक दल थोड़ी दया क्यों नहीं करते? बाकी राज्यों से भेदभाव क्यों होता है? जब भी कहीं चुनावी माहौल हो, प्रचार के दौरान कई मुफ्त योजनाओं को लागू करने का आश्वासन दिया जाता है।

मुफ्त योजनाओं का लाभ देने में अव्वल आम आदमी पार्टी चुनाव प्रचार में कई अकल्पनीय मुफ्त योजनाओं का व्यंजन जनता दरबार में परोसती है। कभी कांग्रेस अपने बेरोजगारी भत्ते वाले चुनावी वादों से जनता को विचलित करती है। अब भाजपा भी घोषणा ओर वादों के रास्ते पर चल पड़ी है।
इन्हीं असंयमित घोषणाओं को पूरा करने के लिए ये सभी पार्टियां केंद्र सरकार को अर्जी देकर मदद की गुहार लगाएंगी।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि असंयमित घोषणाओं से राज्यों की आर्थिक स्थिति को नुकसान पहुंच सकता है, जो कि आगे चलकर देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर करेगा। सवाल है कि दशकों से केवल सत्ता के लालच में जनता को मुफ्तखोरी का लोभ क्यों दिया जाता है? ऐसे चुनावी वादे क्यों किए जाते हैं, जो पूरे न हो सकें? ऐसे वादों का प्रपंच होना कहां तक सही है? राजनीतिक पार्टियां तो चुनावी बोल-बचन देकर निकल जाती हैं।

फिर राज्यों कि आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए मध्यम वर्ग की जेब खाली की जाती है. इन वादों के दुष्परिणाम, जैसे आर्थिक भरपाई को आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है। जब तक मुफ्त का प्रलोभन मिलता रहेगा, तब तक जनता आत्मनिर्भर नहीं बन सकती। चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के इन बेबुनियाद वादों पर लगाम लगानी चाहिए।
शुभम् दुबे, इंदौर</p>

संवाद के रास्ते

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सली हमले के बाद केंद्र और राज्य सरकार के उस दावे पर सवाल उठने लगे हैं, जिसमें कहा जा रहा था कि प्रदेश मे नक्सलियों के असर में कमी आई है। हालांकि पिछले कुछ समय के रिकार्ड को देखें तो इसमें दो राय नहीं कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में नक्सलियों का असर कम हुआ है। न केवल उनके कई नेता पुलिस के हत्थे चढ़े है, बल्कि उनकी गतिविधियों का दायरा भी सीमित हुआ है।

दरअसल, नक्सलियों की तरफ से हमला शायद यह जताने के लिए भी है कि हम अभी खत्म नहीं हुए है। इसलिए यह और जरूरी हो जाता है कि इस हमले से जुड़े तमाम पहलुओं पर गंभीरता से विचार करते हुए यह देखा जाए कि कौन-कौन से बिंदु ऐसे है, जहां चूक की गुंजाइश रह गई थी।

शुरुआती सूचनाओं में से ऐसे कई बिंदु उभरते नजर आते हैं। ‘स्टैंडर्ड आपरेशन प्रोसीजर’ (एसओपी) के उल्लंघन से लेकर खुफिया विभाग की नाकामी तक ऐसे तमाम पहलुओं की ठीक से जांच होनी चाहिए, ताकि आगे के लिए सही सबक लिए जा सकें। इस बारे में हालांकि बातें होती रहती हैं, लेकिन दोहराव का खतरा उठाते हुए भी यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि हिंसा के लिए लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होता।

हिंसा सबसे पहले संवाद की संभावना खत्म करती है। यह लोकतंत्र के हक में है कि हिंसा के दायरे से बाहर समाज के हर तबके से संवाद न केवल संभव हो, बल्कि हर मुमकिन तरीके से इसे रेखांकित भी किया जाता रहे।
मधु कुमारी, बोकारो, झारखंड</p>

न्याय का तकाजा

देर से मिला न्याय, न्याय नहीं मिलने के बराबर है। इसके अलावा न्याय सिर्फ मिलना ही जरूरी नहीं है, बल्कि मिलते हुए दिखना भी चाहिए। लेकिन विश्व भर में देश का नाम रोशन करने वाली पहलवान बेटियों को भी इस न्याय की जरूरत है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि तथाकथित अपराधी महलों में चैन की नींद सो रहे हैं, जबकि पीड़ित लड़कियां सड़कों पर बेचैनी से करवटें बदलने और मच्छरों से सताए जाने के लिए मजबूर हैं।

जो भी हो, इस प्रकरण में पोक्सो कानून के तहत प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है और उसी मुताबिक कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। बाकी सारी प्रक्रिया चलती रहेगी।देश में खेलों से संबंधित सभी संस्थाओं का प्रबंधन खिलाड़ियों के पास होना चाहिए। इसमें राजनेताओं और अफसरशाही का दखल केवल कानून के पालन और उसकी सुरक्षा तक सीमित होना चाहिए। तभी खेलों की तरक्की हो सकती है।

इसके विपरीत अगर वर्तमान परिस्थिति चलती रहेगी तो शायद भविष्य में लोग अपनी बेटियों को खेलों में भेजना बंद कर सकते हैं और खेल संघों से लोगों का विश्वास समाप्त हो सकता है। यह खेलों और देश के हित में नहीं होगा। संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि इस पूरे प्रकरण का त्वरित और न्यायसंगत समाधान होना चाहिए। निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। दोषियों को सजा मिलनी चाहिए और पीड़ितों को न्याय मिलना चाहिए। देश की राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर की महिला खिलाड़ियों का उत्पीड़न अत्यधिक गंभीर मामला है। इस विषय में कोई विलंब, ढिलाई, रियायत या लापरवाही नहीं होनी चाहिए।
इशरत अली कादरी, खानूगांव, भोपाल

तंत्र की नाकामी

‘नशे का जाल’ (संपादकीय, 5 मई) पढ़ा। समाजशास्त्रियों ने एक अध्ययन में खुलासा किया है कि अगले एक दशक में 10 से 18 वर्ष के किशोर बड़ी संख्या में नशे और मादक पदार्थों के आदि हो जाएंगे। नशे के इस घृणित व्यापार में आतंकवादी और पाकिस्तान जैसे दुश्मन सक्रिय रूप से सहयोग कर रहे हैं। वे जब आतंकियों को पैसा नहीं भेज पाते हैं तो मादक पदार्थ भेज देते हैं, जिसे बेचकर लोग आतंकवाद फैलाने के लिए धन एकत्र कर लेते हैं। इस तरह दोहरा वार हो जाता है। युवा नशे की लत में पड़ते हैं और देश आतंकवादियों को भुगतता है!

हमारे देश में मादक पदार्थों के खिलाफ बहुत ही सख्त नियम लागू है। इसके बावजूद इनका बड़े पैमाने पर व्यापार और उपलब्धता तंत्र की नाकामी को प्रकट करती है। इसके शिकार किशोरों-युवकों की हालत यह है कि वे कहीं भी चोरी कर लेते हैं। बात-बात पर लड़ने मरने को उतारू हो जाते हैं और मादक पदार्थों के एवज में अपराध भी करने को तैयार हो जाते हैं।
विभूति बुपक्या, खाचरोद, मप्र