आज स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव काल में भी हिंदी जब इस उपेक्षा भाव का शिकार है तो प्रश्न वाजिब है कि जब संविधान ने देश के नागरिकों को अपनी भाषा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है तो आखिर यह मौलिक अधिकार न्याय मंदिर के पवित्र द्वार पर जाकर ठिठकते हुए निशब्दता की स्थिति में क्यों है।
देश में मूल रूप से अंग्रेजी बोलने वालों की जनसंख्या मात्र दो से तीन फीसद के बीच जब है तो न्यायालय की यह भाषा बने रहने की अनिवार्यता एक विडंबना ही है। संविधान के अनुच्छेद 348 में स्पष्ट उल्लेख है कि संसद जब चाहे सुप्रीम कोर्ट के कार्य संचालन की अंग्रेजी भाषा को परिवर्तित करने के लिए कानून का निर्माण कर सकती है।इसके लिए अनेक बार मांग की जा चुकी है कि न्यायालयों की भाषा ऐसी हो, जिसे आम आदमी समझ-बूझ सके।
हिंदी के प्रति लोक अभिरुचि में वृद्धि का तकाजा है कि अगर न्यायालय के कार्य हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में हो तो न्यायिक प्रक्रिया के प्रति सामान्य नागरिकों में विश्वास और सम्मान बढ़ेगा। हिंदी की प्रतिष्ठा का ही प्रमाण है कि वर्ष 2014 से देश के प्रधानमंत्री देश-विदेश के सभी समारोहों सहित अनेक राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय न्यायिक कार्यक्रमों में भी अपनी बात हिंदी में रखते रहे हैं।
चीन, जापान, रूस, फ्रांस,इटली सहित दुनिया के अधिकांश देश जब अपनी मौलिक भाषा में जीवन की समस्त गतिविधियों का संचालन कर रहे हैं तो हमारे नीति निर्धारकों को चिंतन मनन कर हिंदी को सर्वोच्च न्यायालय सहित हिंदी भाषी प्रदेशों के उच्च न्यायालय के कामकाज में भी हिंदी का प्रयोग सुनिश्चित कराना चाहिए। अंग्रेजी को मिथ्या मर्यादा के परिपालन में जिस रूप में अभी तक ढोया जा रहा है, इसी कारण से हिंदी की बिंदी राष्ट्रीय मस्तक पर सुशोभित होने से वंचित है।
राजभाषा के लक्ष्य को स्पर्श कर राष्ट्रभाषा के दर्जे को प्राप्त करने में तरसती हमारी हिंदी को न्यायिक नैराश्य नभ से निकलने की जरूरत है। राज्यों के विधानमंडलों तथा संसद को वोट की राजनीतिक राग से मुक्त होकर इस राष्ट्रीय प्रसंग को भाषाई हित में गंभीरतापूर्वक संविधान संशोधन के लिए सचेष्ट होना चाहिए। बेहतर होता अगर इस ज्वलंत लोक प्रसंग को देश के न्यायिक संस्थानों द्वारा पहल करके अंग्रेजी भाषा की दासता से मुक्ति की दिशा में निर्णायक भूमिका निभाई जाती।
अशोक कुमार, पटना, बिहार।
वक्त की पुकार
अतिवाद की राजनीति सचमुच में उग्रवाद की राजनीति होती है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। आजादी के बाद से भारत में भाईचारा बढ़ा था। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में अतिवादियों ने समाज में खलल पैदा कर दिया है, जीना हराम कर दिया है। कहीं हिंदू-मुसलिम तो कहीं मंदिर-मस्जिद तो कहीं हिंदुस्तान-पाकिस्तान के नाम पर जहर घोला जा रहा है। फलस्वरूप भारत की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था चरमरा रही है।
एक हिंदुओं में जोश भर रहा है कि हम ही असली हिंदू हैं और हिंदुओं का नेता भी। दूसरा अपने उन्मादी बयानों से मुसलमानों को लुभा रहा है कि आप भी हमें अपना नेता मान लें। एक सत्ता में है तो दूसरा सत्ता से दूर। जाल बिछाए जा रहे हैं। लेकिन अफसोस कि दोनों पक्षों की नजर में जनता का वास्तविक हित नहीं है। दूसरी ओर, समाजवादियों को मिट जाना कबूल है, मगर अतिवादियों या सांप्रदायिक शक्तियों से हाथ मिलाना मंजूर नहीं। उनकी आत्मा ‘हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई’ के मूल में निवास करती है।
अतिवादी धर्म के नाम पर लोगों को भड़का कर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं, आम जन को कोई लाभ नहीं होता। समाज में एक से एक जौहरी हैं, आज समय की पुकार है कि वे यथार्थ को परखें और भारत की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा के लिए आगे आएं, ताकि भारत का संविधान अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित रहे।
कामता प्रसाद, भभुआ, बिहार।