श्वेत-श्याम यानी ब्लैक ऐंड वाइट फिल्में बिना कोई अतिरिक्त तकनीकी कलाकारी और प्रभाव वाली होती थीं, जिसमें अभिनय करने वाले अभिनय में जान डाल देते थे। मधुर संगीत, शूटिंग स्थल, पारंपरिक नृत्य, गीत के बोल जो आज भी पसंद किए जाते हैं। इसी के मद्देनजर पुरानी हिट फिल्मों को रंगीन प्रिंट में भी तब्दील किया गया। ‘मदर इंडिया’, ‘संगम’, ‘प्यासा’, ‘मेरा नाम जोकर’ आदि। ‘मृगया’, ‘पार’ जैसी ब्लैक ऐंड वाइट फिल्मों ने पुरस्कार पाया था। उनमें निर्देशन बहुत ही शानदार रहता था।
धीरे-धीरे विदेशों से स्पेशल इफेक्ट, थ्री-डी जैसी तकनीकों का प्रयोग कर दर्शकों को बांधने की कोशिश की गई। इन प्रयोगों से कुछ ही फिल्में, जिनकी लागत करोड़ों में थी, उनमें से कुछ फिल्में ही हिट हो पार्इं। महज गानों और फिल्मांकन से सफलता की अपेक्षा की जाती है। जबकि पुराने जमाने में फिल्म की कहानी ही फिल्म का मुख्य आधार रहती थी। दर्शक मंत्रमुग्ध होकर फिल्म की कहानी का आनंद लेते थे। उस समय फिल्में एकमात्र मनोरंजन का साधन थीं।
आज इस मसले पर एक सुझाव यह है कि अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में चयनित फिल्मों का दूरदर्शन पर प्रसारण किया जाना चाहिए, ताकि दर्शक संस्कृति और ज्ञानार्जन में उपयोगी पटकथाओं, फिल्मांकन और अभिनय की नवीन विचारधाराओं से परिचित हो सकें।
’संजय वर्मा ‘दृष्टि’, धार, मप्र
दोहरा रवैया
लगभग एक सप्ताह पहले समाचार आया कि वर्ष की प्रथम तिमाही में चीन सकल घरेलू उत्पाद यानी उसकी जीडीपी अठारह फीसद बढ़ी है, तब भारत के अधिकतर टीवी चैनलों पर परोसे गए विश्लेषणों में चीन की प्रशंसा के पुल बांधे गए। दूसरी ओर, यह खबर आई कि इसी प्रथम तिमाही मे भारत कि जीडीपी बीस फीसद बढ़ी। पर इस खबर पर विलेषकों के बीच शांति छाई रही। यह कैसा रवैया है?
इसी तरह कोरोना से निपटने के क्रम में कुछ महीने पहले भारतीय प्रयासों की अल्पता, चिकित्सा सेवाएं, आॅक्सीजन, अस्पताल, डॉक्टर, नर्सों की कमी हो गई थी, लोगों की मौत हो रही थी, उस दौरान देशी-विदेशी टीवी चैनलों पर भारत का मजाक उड़ाने में कमी नहीं की गई। लेकिन आज अमेरिका में आज के उससे बदतर हालात पर उसी तरह का रुख अपनाना किसी को जरूरी नहीं लगता है। इस तरह के दोहरे मानदंडों पर आधारित विश्लेषण और चर्चा का हासिल क्या होना है? ऐसे में सबसे ज्यादा नुकसान विश्वसनीयता का होगा, यह समझ लिया जाना चाहिए।
’अजय मित्तल, मेरठ, उप्र