संसदीय कार्यों में लगातार गतिरोध को आतुर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और उसके कुछ छद्म सहयोगी आज सत्ताधारी दल को कोई भी सकारात्मक कार्य करने से रोकने में कतई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। आजकल अनौपचारिक बातचीत में वे लोग मुख्यत: ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ जुमले का भरपूर उपयोग कर रहे हैं, जिसमें उनके निशाने पर वर्तमान सत्ताधारी दल की पिछली सरकार के समय में विपक्ष की भूमिका का गतिरोधात्मक स्वरूप है। माना कि वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने अपनी विपक्ष की भूमिका का निर्वहन राजनीतिक लाभ के लिए किया लेकिन ‘परिपक्वता’ नामक गुण भी कोई चीज है।
यह तो वही बात हो गई कि घर में एक बच्चे ने जिद-पकड़ कर कोई बात मनवा ली तो अब दूसरा बच्चा भी उसी तरह जिद करने लगे! इसमें उन माता-पिता का क्या दोष जो घर में एक व्यवस्थित और प्रगतिशील माहौल बनाना चाहते हैं, जो घर के एक बच्चे की अपरिपक्वता के कारण बन नहीं पा रहा है? ठीक ऐसा ही हाल भारतीय संसद के सदस्यों का निर्वाचन करने वाली जनता और संसद के सकारात्मक निर्णयों की लगातार प्रतीक्षा करती ‘अर्थव्यवस्था’ का हो गया है, जो बस एक व्यवस्थित और प्रगतिशील माहौल देखने की इच्छुक हैं।
अद्भुत ऊर्जा और गुणों के मालिक, हम सबके चहेते और अपनी लेखनी से आज भी जीवित ‘कलाम साहब’ ने जीवन के अंतिम पलों में अपने सहयोगी से संसदीय कार्यों में हो रहे गतिरोध पर भारी चिंता जताई थी। मगर कुछ भद्रजन हैं कि संवैधानिक प्रश्नों की जगह राजनीतिक प्रश्नों को उठाते रहने की सौगंध खाए बैठे हैं। वैसे वर्तमान सरकारी पक्ष के कुछ सांसद अपनी सीमा लांघकर जब-जब बोले हैं तब-तब वे भी ऐसी समस्याओं के जनक बने हैं।
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने संविधान दिवस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि जब तक भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान में दिए गए अधिकारों और साथ ही साथ कर्तव्यों की जानकारी नहीं होगी, तब तक संविधान दिवस के मायने सीमित ही होंगे। वैसे पूर्व जस्टिस काटजू तो संविधान दिवस मनाने को एक ‘राजनीतिक स्टंट’ सिद्ध कर रहे हैं। खैर, जो भी हो इसी बहाने भारतीय संविधान की चर्चा गांव-समाज में एक दिन और हो जाया करेगी! (सत्य देव आर्य, मेरठ)
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किसका पानी
हम सब जानते हैं कि जल ही जीवन है। यही वजह है कि हर सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ। जब संपूर्ण मानव प्रजाति के लिए पानी इतना महत्त्वपूर्ण है तो कुछेक स्वेच्छाचारी देश ‘कब्जा’ वृत्ति के जरिए विश्व को क्या संदेश देना चाह रहे हैं? गंगा के उद्गम स्रोत की पहचान अब तक गोमुख, उत्तराखंड थी पर आज बहस छिड़ी है कि गंगा का उद्गम मानसरोवर (चीन) में कहीं है। उमा भारती को चीन की पैरवी करने वाली कहा जा रहा है। इसमें आश्चर्य क्या है?नेता हो या अभिनेता, उनका तो उद्देश्य ही चर्चा में बने रहना है वरना उनका काम कैसे चलेगा? करोड़ों रुपए खर्च कर मशीनें आ चुकी हैं और गंगा का उद्गम ढूंढ़ने के कयास अब प्रयास में तब्दील होने जा रहे हैं। भारत की गरीबी, बाल और महिला कुपोषण, बढ़ती जनसंख्या, बेरोजगारी, महंगाई, आतंकवाद, संकीर्ण दृष्टि से उपजी धार्मिक समस्याएं आदि शायद भारत में खत्म हो गई हैं जो हम करोड़ों रुपया खर्च कर नदियों के उद्गम स्रोत ढूंढ़ने निकल पड़े हैं!
पानी पर पड़ोसी राज्य हो अथवा देश, अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं। यह सिलसिला आज भी चल रहा है। लेकिन मैं अपने रहनुमाओं से पूछती हूं कि क्या तीसरे विश्वयुद्ध का बीजारोपण पानी को लेकर हो चुका है? यदि हां, तो वह दिन दूर नहीं जब उपलब्ध पानी को इस्तेमाल करने वाले ही नहीं बचेंगे। यदि नहीं, तो फिर जल क्षरण को रोकने के उपाय विश्व स्तर पर होने चाहिए न कि उपलब्ध सीमित संसाधनों पर घमासान। इस ओर कुछेक फिल्म निर्माता जरूर कुछ सराहनीय प्रयास कर रहे हैं समाज को चेताने के लिए। देखें कब चेतते हैं हम? (अनीता यादव, दिल्ली विश्वविद्यालय)
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एड्स से बचाव
देश में लोगों के बीच एड्स के प्रति कम जागरूकता का ही नतीजा है कि एड्स पीड़ित को न सिर्फ शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से कष्ट उठाना पड़ता है, बल्कि सामाजिक रूप से भी बहिष्कार झेलना पड़ता है। आज भी लोग मानते हैं कि एड्स जैसी जानलेवा बीमारी मरीज के साथ खाने, बैठने और छूने से फैलती है। जिस वक्त मरीजों को मानसिक और सामाजिक तौर पर सहारा चाहिए उस वक्त ऐसा व्यवहार उन्हें और कमजोर बना देता है। इस तरह के अज्ञान का कारण है समाज की मानसिक संरचना। लोग यौन संबंध पर बात करने तक से कतराते हैं।
पुख्ता जानकारी के अभाव में लाखों जानें इस बीमारी ने निगल लीं। लिहाजा, आज जरूरी है कि घरों में, समाज में खुल कर ऐसी बीमारियों पर चर्चा हो और पाठ्यक्रमों में एड्स से बचाव की शिक्षा दी जाए जिससे लोगों के बीच जागरूकता बढ़े और इस जानलेवा बीमारी की रोकथाम की जा सके। (शुभम श्रीवास्तव, गाजीपुर)
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अमल की दरकार
जनता ने केजरीवाल को प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का जिम्मा सौंपा है। फिर भी उनकी सरकार ने जनलोकपाल विधेयक पेश करने में नौ महीने का वक्त लगा दिया। मुख्यमंत्रीजी, जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी तब भी लोकपाल कानून बनाया गया था जो कभी अमल में नहीं लाया गया। अब जनलोकपाल कानून बन जाता है तो उसमें केंद्रीय कर्मचारियों के दोषी पाए जाने पर उनके खिलाफ भी जांच और सजा का प्रावधान है। सवाल है कि क्या केंद्र इसकी मंजूरी देगा? यह सबसे मुश्किल काम है और केजरीवाल के लिए सबसे आसान क्योंकि राजनीति का सबसे पुराना उसूल है कि अपना ठीकरा किसी और के सिर फोड़ दो और खुद गीली पूंछ कर तालाब से बाहर निकल आओ। आप जनता से कह देंगे कि केंद्र लोकपाल नहीं बनने दे रहा है!
आपकी सरकार को आए लगभग नौ महीने हो चुके हैं, लेकिन दिल्ली में बदलाव रत्ती भर नहीं है। सियासत के अंधियारे में इतना गुम मत हो जाइए कि जनता की परेशानी आपको दिखनी बंद हो जाए और उसकी तकलीफें मजाक लगने लग जाएं। वोट चाहिए तो दिल से खोट निकाल दीजिए। (पुनीत सैनी, शांति मोहल्ला, दिल्ली)