क्योंकि सभी भारतीय समुदायों में व्यावहारिक रूप से जातिभेद के साथ ही गरीबी भी कायम है। जाति-धर्म, अल्पसंख्यक औपनिवेशिक मानसिकता की उपज है, जिसे भारतीय राजनीति में नेताओं ने अपने हित साधने के लिए जिंदा रखा हुआ है। भारतीय संस्कृति व वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा को बनाए रखने और संविधान की लोक-कल्याणकारी भावना को स्थापित के लिए एकमात्र विकल्प गरीबी को आधार बनाया जाना चाहिए।
सवाल है कि क्या अल्पसंख्यक समुदायों में सभी वंचित तबकों से आते हैं? क्या जिन भारतीय राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, उनके साथ अन्याय नहीं होता? क्या सरकारी नौकरी करने वाले अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति एवं जनजाति को पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण देना न्यायसंगत है? क्या ऐसी मानसिकता अन्य बहुसंख्यक गरीब जातियों के साथ अन्याय नहीं? क्या आरक्षण की मांग व विचारधारा समाज में ईर्ष्या-द्वेष का कारण नहीं?
क्या ऐसी व्यवस्था से युवा पीढ़ी प्रभावित नहीं होती? आखिर क्या कारण है कि अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई परिपाटी को जीवित रख राजनीतिक दलों द्वारा इसे बढ़ावा दिया जाता है? समय की मांग है कि संसद ऐसा प्रस्ताव लाए जिसमें सालाना पांच लाख की आमदनी गरीब का आधार हो और इसी में खेत व अन्य पारिवारिक स्त्रोतों को भी गिना जाए। सभी समुदायों में सरकारी नौकरी करने वाले लोगों को स्पष्ट रूप से आरक्षण के लिए अपात्र समझा जाना चाहिए। सरकार द्वारा समय-समय पर ऐसे लाभ पाने वाले और वंचित लोगों की समीक्षा की जानी चाहिए।
जाति, धर्म और अल्पसंख्यक आधारित लाभ को समाप्त किया जाना चाहिए। सरकारी नौकरियों में अंकों के आधार पर आरक्षण न देकर अधिक अवसर को आधार बनाया जाना चाहिए, ताकि प्रशासनिक अधिकारियों की कार्यकुशलता प्रभावित न हो। ऐसे आधार की वकालत भारतीय संविधान भी करता है। ऐसी व्यवस्था से ही सामाजिक न्याय एवं जन-गण-मन समरसता की भावना को स्थापित किया जा सकता है।
पवन कुमार मधुकर, रायबरेली
सूदखोरी का जाल
सूदखोरों के जाल में उलझ कर बिहार के नवादा जिले के एक ही परिवार के छह सदस्यों द्वारा आत्महत्या की घटना हृदय विदारक है। बिहार में आज भी ग्रामीण इलाकों में गरीब लोग अपनी जरूरतों को पूरा करने सूदखोरों से पैसा लेते हैं, जहां मासिक दस फीसद ब्याज तक लिया जाता है और इस पर भी अगले माह से चक्रवृद्धि ब्याज चलाया जाता है।
यदि कोई गरीब व्यक्ति सूदखोर के जाल में फंस जाता है तो उसे इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। कभी-कभी सूदखोरों से मुक्ति पाने के लिए लोग अपनी जमीन उसके नाम कर देते हैं, या अपने घर के कीमती आभूषण बेच कर उसका कर्ज चुकाते हैं और जब कोई विकल्प नही बचता और सूदखोरों का जुल्म बढ़ने लगता है तो लोग अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। इस तरह के मामलों की खबर पुलिस थाना तक नहीं पहुंचती है, जिसकी वजह से गरीबों पर सूदखोरों का जुल्म जारी है।
नवादा की घटना यह सिद्ध करती है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग व्यवस्था की स्थिति दयनीय है, गरीब और जरूरतमंद लोगों को समय पर बैंक से कर्ज नहीं मिल पाता, जिसकी वजह से उन्हें सूदखोरों के पास जाने को मजबूर होना पड़ता है। सरकार को बैंकिंग व्यवस्था को और अधिक मजबूत करना चाहिए, ताकि गरीबों को समय पर बैंक से सहायता उपलब्ध हो सके और सूदखोरों के चंगुल से लोगों को बचाया जा सके।
हिमांशु शेखर, गया।