पुणे का मिराज स्टेशन। अचानक प्लेटफार्म पर हलचल बढ़ जाती है। फूल मालाओं से सजी वाटर एक्सप्रेस कोटा वर्कशॉप से मिराज स्टेशन पहुंच रही है। लोगों में उत्साह है। प्रशासन इतना उत्सुक है मानो देश की पहली रेल को हरी झंडी दिखानी हो। तभी एक बड़ा-सा पोस्टर लाकर लगाया जाता है जिसमें ‘पानी एक्सप्रेस’ के लिए सरकार की सराहना की गई है। क्या सच में इस पोस्टर की जरूरत थी?
हमारी दिक्कत है कि समस्या का फौरी समाधान करते हैं बजाय उसे पूरी तरह खत्म करने के। समस्या को पूरी तरह खत्म करने के लिए जरूरी है उसकी जड़ों को समझना। पानी एक्सप्रेस निस्संदेह एक सराहनीय कदम है लेकिन सरकार को समझना होगा कि यह समस्या पैदा कैसे हुई? महाराष्ट्र में सूखा पड़ना थोड़ी हैरानी की बात है। केंद्रीय जल आयोग की वेबसाइट के अनुसार देशभर में सबसे अधिक बांध महाराष्ट्र में हैं। यहां बांधों की कुल संख्या 1845 हैं, जिनमें से 1693 बांध बन चुके हैं और बाकी बन रहे हैं।
तो सवाल है कि इतने बांधों के बाद भी महाराष्ट्र प्यासा है और इस बांध-योजना से जुड़े लोग मालामाल हो गए। मतलब साफ है, योजनाएं बन तो रही हैं लेकिन उनसे आम आदमी को कम और सरकारी तीमारदारों को ज्यादा फायदा हो रहा है।
पूरे मराठवाड़ा में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। लोग बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं। खेती पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है और लोग दूसरे शहरों की ओर रुख कर रहे हैं, जहां लोग खुले आसमान में रहने को मजबूर हैं। बावजूद इसके राजनीतिक हस्तियों की असंवेदनशीलता के कुछ उदाहरण अफसोनाक हैं।
महाराष्ट्र के कृषि मंत्री एकनाथ खड़से बेलकुंड में जल आपूर्ति संयंत्र का उद््घाटन करने पहुंचे थे जहां उनके लिए हेलीपैड तैयार करने में दस हजार लीटर पानी बहा दिया गया। एक ओर जहां किसान खराब फसल, सूखी धरती को देखकर प्यासी नजरों से आसमान की ओर देखते हैं तो वहीं दूसरी तरफ कुछ राजनीतिक हस्तियां इस प्यासी, सूखी धरती के साथ सेल्फी खिंचवाती नजर आती हैं। आईपीएल के मुंबई में न होने पर भी खूब बहस हुई क्योंकि महाराष्ट्र सरकार का कहना था कि क्रिकेट पिच के लिए बड़ी मात्रा में पानी रोजाना बर्बाद होता है।
मराठवाड़ा सूखे की मार झेल ही रहा था कि इसकी चपेट में फिर से एक बार बुंदेलखंड राज्य आ गया जहां सूखे की मार ऐसी पड़ी कि किसानों की सारी फसल बर्बाद हो गई और बैंकों का कर्ज चुकाने के डर से उनके पास आत्महत्या करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहींं रहा। किसानों की आत्महत्या के आंकड़े बताते हैं कि उनके हालात अब भी चिंताजनक हैं। बुंदेलखंड में पिछले साल चार सौ किसान खराब फसल देख सदमे में मर गए या आत्महत्या कर ली।
किसान संगठनों से मिल रहे आंकड़ों के मुताबिक 2015 में करीब दो हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इन सबसे निपटने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत की गई है जिसमें फसल खराब होने पर तुरंत 25 फीसद बीमा क्लेम मिलेगा। सरकार ने ऐसे अनेक सराहनीय कदम उठाए हैं लेकिन अभी ये नाकाफी हैं। किसानों को ढांचागत परिवर्तन और बड़े निर्णयों की दरकार है। राजनेताओं को और अधिक संवेदनशील होना होगा क्योंकि ये वक्त सूखे में सेल्फी लेने या वाटर एक्सप्रेस में पोस्टर लगाने का नहीं है! (विनीता मंडल, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
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कितनी खाइयां
सूचना-तकनीकी क्रांति के दौर में जहां माउस क्लिक, एम गवर्नेंस और डिजिटल इंडिया के ढोल पीटे जा रहे हैं तब गुड़गांव को गुरुग्राम करने की क्या जरूरत आ पड़ी थी? यह गुड़गांव के लोगों की मांग थी या आरएसएस का खट्टर सरकार पर दबाव? हम भारत को कहां ले जाना चाहते हैं? इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारतीय समाज को आखिर क्यों हजारों साल पीछे धकेलने की पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं? जल, जंगल, जमीन और जन को तो हम जाति, धर्म, लिंग, संप्रदाय आदि के आधार पर पहले ही बांट चुके हैं। लव जेहाद, घर वापसी, असहिष्णुता, मंदिर निर्माण, वंदे मातरम, भारत माता की जय, मनु और हिंदुत्व वगैरह की आड़ में भी खूब खाइयां खोदी जा चुकी हैं। अब समझ आ रहा है कि वे बार-बार क्यों कहते थे कि ‘समय कम है और काम ज्यादा’? (मुकेश कुमार, महावीर एन्कलेव, दिल्ली)
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रियायत का आधार
हाल ही में एक प्रतियोगी परीक्षा का विज्ञापन देखा। इसमें सामान्य वर्ग के छात्रों के लिए आवेदन-शुल्क एक हजार, ओबीसी के लिए पांच सौ और एससी-एसटी के लिए ढाई सौ रुपए निर्धारित किया गया था। अक्सर देखा गया है कि सामान्य वर्ग में भी अनेक प्रत्याशी बहुत गरीब होते हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं या नौकरियों के लिए फॉर्म आदि भरने के लिए मोटी फीस जमा नहीं करा सकते। गांवों अथवा पिछड़े इलाकों में रहने वाले गरीब छात्र नौकरियों के लिए आवेदन पत्र इसलिए जमा नहीं कर पाते कि वे सामान्य वर्ग से आते हैं और सामान्य वर्ग के छात्रों का आवेदन शुल्क अपेक्षया अधिक होता है। यह बात हमें समझनी होगी कि जाति अथवा वर्ग देख कर किसी को अमीर या गरीब नहीं ठहराया जा सकता। नौकरियों के लिए किसी भी रियायत का आधार आर्थिक हो, जाति नहीं और सभी आवेदनकर्ताओं के लिए फीस की राशि एकसमान की जाए। नौकरी लगने के बाद जब सबकी तनख्वाह एकसमान होती है तो नौकरी लगने से पहले फॉर्म भरने में फीस की राशि में असमानता क्यों? (शिबन कृष्ण रैणा, अलवर)
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स्वदेशी की ओर
हमारे देश में लोग स्वदेशी वस्तुओं को अधिक महत्त्व देने की बातें तो करते हैं लेकिन फिर भी ज्यादातर विदेशी वस्तुओं का उपयोग करते हैं। अगर देश की तीस फीसद आबादी भी स्वदेशी वस्तुएं इस्तेमाल करने लगे तो इसका प्रभाव हम अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद पर देख सकते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हानिकारक शीतल पेय पदार्थों का इस्तेमाल करके हम अपने शरीर को तो नुकसान पहुंचाते ही हैं, अपनी अर्थव्यवस्था को भी क्षति पहुंचाते हैं। अगर हम गन्ने के रस, नींबू, शिकंजी, लस्सी आदि पेय पदार्थों का सेवन करें तो इससे हमारे शरीर को तो फायदा होगा ही, किसान, जो हमारे अन्नदाता हैं और आज भुखमरी और सूखे से अपनी जान गंवा रहे हैं, उन्हें और हमारे देश को भी इसका लाभ प्राप्त होगा। (शुभम साहू, सिवनी, मालवा, होशंगाबाद)