हम आज चारों तरफ प्लास्टिक से घिर चुके हैं। हमारे पास शायद ही ऐसी कोई वस्तु हो, जिसमें प्लास्टिक का मिश्रण न हो। अब यह प्लास्टिक हमारी खूबसूरत धरती के लिए विनाशकारी साबित हो रहा है। आज इसी की वजह से जलीय और स्थलीय जीव के साथ ही मानव का जीवन संकट में पड़ गया है। प्लास्टिक पर्यावरण और जैव विविधता के लिए भी खतरनाक साबित हो रहा है। इसके चलते जल प्रदूषण बढ़ा है नदियों का दम फूल रहा है। इसके अलावा वायु प्रदूषण बढ़ा है। प्लास्टिक की सबसे खतरनाक बात यह है कि आज जो पीढ़ियां इसका उपभोग कर रही हैं, वे यहां से चली जाएंगी, लेकिन यह यही बना रहेगा।

भारत में हर साल नब्बे लाख टन से अधिक प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, जिसमें तैंतालीस फीसद सिंगल यूज प्लास्टिक होता है। सरकार ने इसी आपदा से निपटने के लिए देश में 1 जुलाई से उन्नीस प्लास्टिक उत्पादों, जो सिंगल यूज प्लास्टिक की श्रेणी में आते हैं, पर प्रतिबंध लगा दिया है। यह फैसला देर से ही सही, लेकिन स्वागत योग्य है। मगर यह राह इतनी आसान है नहीं, जितनी हम समझ रहे हैं, क्योंकि हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि केवल कानून बना भर देने से व्यवस्था दुरुस्त नहीं हो सकती।

इस महत्त्वाकांक्षी योजना के सामने कुछ चुनौतियां बनी हुई हैं। पहली चुनौती यह है कि क्या सिंगल यूज प्लास्टिक का विकल्प हमारे देश में इतनी जल्दी मौजूद हो पाएगा, क्योंकि हम इसके आदी हो चुके हैं, इसको हमारे जीवन से निकालना इतना आसान नहीं है। दूसरे, माना जा रहा है कि इस फैसले के बाद देश की अट्ठासी हजार इकाइयां बंद हो सकती हैं, जो सिंगल यूज प्लास्टिक के क्षेत्र में कार्यरत हैं।

इस स्थिति में यह तय है कि उनमें कार्यरत लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ेगा। इस उद्योग पर करीब दस लाख से अधिक लोग रोजगार के लिए आश्रित हैं। यानी बेरोजगारी की बाढ़-सी आ जाएगी। तीसरी चुनौती है कि क्या इसके स्थान पर उपयोग की जाने वाली वस्तुओं का दाम इनके बराबर होगा या इनसे अधिक, यह बड़ा सवाल है। सरकार ने कहा है कि इसके स्थान पर उद्योग कागज की वस्तुओं का निर्माण करें, लेकिन हमारे पास कागज के कच्चे माल की उपलब्धता उतनी नहीं है, जितनी की खपत। देश में साठ लाख स्ट्रा पाइप की खपत है, जबकि कागज से अगर हम इसे बनाएं तो इसके कच्चे माल की उपलब्धता केवल तेरह लाख भर की है।

दुग्ध उत्पादन उद्योग पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ने वाला है, क्योंकि इस क्षेत्र में सिंगल यूज प्लास्टिक का बहुत अधिक मात्रा में प्रयोग होता है, जिसका फिलहाल कोई तत्काल विकल्प नहीं दिखाई दे रहा है। सबसे महत्त्वपूर्ण है कि इस अभियान को सफल बनाने में जनभागीदारी किस हद तक अपना योगदान देती है, क्योंकि कोई भी कानून कोई भी योजना तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि वहां का समाज इसमें अपनी सकारात्मक भूमिका न निभाए।
सौरव बुंदेला, भोपाल</p>