संपादकीय ‘हिंसा की जड़ें’ के विषय में यही कहना है कि एक जमाना था कि पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का ही शासनकाल अधिक रहा, 34 साल तक। तब वह स्वयं को शासन में बनाए रखने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाया करती थी, मारपीट से लेकर बम धमाके करने से भी नहीं चूकती थी। अब जब उसी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन काल को ममता बनर्जी ने धराशायी कर दिया तो यह कोई मामूली बात नहीं थी।
कारण आज ममता बनर्जी की पार्टी भी अपने को सत्ता में बनाए रखने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर अपनी सत्ता को बनाए हुए है। कह सकते हैं कि आज बंगाल में राजनीति एवं हिंसा मानो एक दूसरे के पर्याय बने हुए वहां का छोटा से छोटा चुनाव भी बिना हिंसा के संपन्न नहीं होता है। दिनदहाड़े हत्या होना या बम धमाके होना वहां आज मामूली बात है, फिर ऐसा भी नहीं कि यह हिंसा केवल चुनाव के समय होती हो, आजकल तो वहां पर चुनाव से भी काफी पहले से ही यह सब हिंसा का दौर दौरा शुरू हो जाता है।
दरअसल, आज वहां की राजनीतिक पार्टियां हिंसा के बल पर ही अपना जनाधार मजबूत बनाए रखने का प्रयास कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान हिंसा की दो मुख्य वजहें हो सकती है एक तो यहां पर बड़े पैमाने पर गरीबी और दूसरे, लोगों में राजनीतिक जागरूकता यही स्थिति बिहार की भी है- इन दोनों जगहों पर हिंसा की घटनाएं लगातार होती रहती हैं और राजनीतिक दल इसका लाभ उठाते रहते हैं।
आज राजनीति में बाहुबल के बढ़ते प्रभाव की वजह से भी इस तरह से लोगों में अपनी शक्ति के प्रदर्शन का मौका मिल जाता है। अत: राजनीति में बाहुबल के बढ़ते चलन को लगाम लगाने की जरूरत काफी समय से महसूस की जा रही है। एक समय जो बंगाल रवींद्र संगीत के लिए जाना जाता था, वहीं परआज बम धमाके बहुतायत से होने लगे हैं।
वहां हिंसा का सिलसिला कब रुकेगा यह कहना मुश्किल है। एक समय राजनीति में अतिसंवेदनशील राजनीतिज्ञ कहलाने वाली ममता बनर्जी आजकल की राजनीति में बम धमाकों की बड़ी पर्याय बन गई हैं। उन्हें राजनीति का यह नया रंग किस तरह से पसंद आ रहा है यह समझ से बाहर है।
मनमोहन राजावतराज, शाजापुर
लाठी और भैंस
संपादकीय ‘सियासी पाठ्यक्रम’ (17 जून) विचारोत्तेजक है। एक तरफ जहां एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में बदलाव को लेकर देश के कुछ सम्माननीय शिक्षाविदों ने आपत्ति दर्ज कराई है और सलाहकार समिति से अपना नाम तक हटाने का आग्रह किया है, तो वहीं दूसरी ओर कर्नाटक राज्य में नवनिर्वाचित सरकार द्वारा, राज्य परिषद की पुस्तकों से कुछ अध्याय हटाए जा रहे हैं और उनकी जगह अन्य रचनाओं को शामिल किया जा रहा है।
जाहिर है कि ये बदलाव पहली बार नहीं किए जा रहे हैं और सरकार में परिवर्तन के साथ ऐसे बदलाव समय समय पर होते रहते हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष एम जगदीश कुमार ने एनसीईआरटी द्वारा किताबों में किए गए बदलाव का बचाव किया है और उन्होंने शिक्षाविदों की आपत्तियों को अवांछित करार दिया है।
यह सही है कि पाठ्य पुस्तकों में किए जाने वाले बदलावों और राजनितिक आग्रहों-दुराग्रहों से विद्यार्थियों की सीखने की प्रक्रिया बाधित होती है, लेकिन हकीकत तो यह है राजनीतिज्ञों को इस तथ्य से कुछ फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तो केवल अपनी राजनीति चमकानी है। विभिन्न पाठ्यक्रमों में, बारंबार किए जाने वाले बदलाव किसी भी दृष्टि से भावी पीढ़ियों के लिए ठीक नहीं हैं।
अगर ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज पर यही सिलसिला चलता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा कि देश की राजनीतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान से संबंधित समस्त पुस्तकें प्रदूषित हो जाएंगीं। एक ही विषय, प्रसंग या प्रकरण पर केंद्रीय पुस्तकों और राज्य सरकारों की पुस्तकों में अलग-अलग जानकारी पढ़ाई जाएगी। कहने को सभी विद्यार्थियों की शिक्षा प्रामाणिक होगी, लेकिन सबका ज्ञान एक दूसरे से अलग होगा।
यह स्थिति राजनीतिज्ञों को तात्कालिक लाभ पहुंचा सकती है, पर वास्तव में अत्यंत घातक है। देशहित में बदलाव की इस घातक प्रवृत्ति और नुकसानदेह प्रक्रिया पर तुरंत प्रभाव से संपूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए। यह लोकतंत्र है, सरकारें आती रहेंगी, जाती रहेंगी लेकिन देश का इतिहास और इसकी संस्कृति इन राजनीतिक बदलावों से अप्रभावित रहना चाहिए, अक्षुण्ण रहना चाहिए।
इशरत अली कादरी, भोपाल</p>
टकराव के ध्रुव
संपादकीय ‘सहजीवन की दुश्वारियां’ में उल्लेख है कि भारत में सहजीवन अर्थात बिना शादी के साथ रहना या जिसे हम ‘लिव इन रिलेशनशिप’ भी कहते हैं, एक सीमा तक ही ठीक है, किंतु भारतीय संस्कृति के तहत कुछ समाज से सिरे से खारिज करते रहे हैं। दरअसल, बिना विवाह के विपरीत लिंग वाले व्यक्तियों को साथ में रहने की छूट समाज तो क्या शास्त्र भी नहीं देते हैं।
शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया है कि सामान्यत: भाई-बहन को भी रात को अकेले किसी कमरे में साथ सोने की छूट नहीं देना चाहिए। इस युग में सहजीवन जीना एक फैशन सा हो गया है, किंतु जब उनमें किसी तरह के मतभेद पैदा होते हैं या जब मतभेद होने पर साथ नहीं रहना चाहते या संबंध विच्छेद होते हैं तब उन्हें किसी से भी सहायता मिलने में कठिनाई होती है और कानून से भी कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती। कानून तो उन्हीं का साथ देता है, जिन्होंने बाकायदा सप्रमाण शादी की हो, तो दोषी को सजा या भरण-पोषण करने के लिए बाध्य कर सकता है।
सहजीवन वाले संबंध विच्छेद के बाद समाज में अलग-थलग पड़ जाते हैं तब उन्हें इस बात का एहसास होता है कि सहजीवन सही नहीं था। देखा जाए तो सहजीवन बहुत कम सफल होते हैं। सहजीवन जीने हेतु संयम और स्वनियंत्रण के साथ सामाजिक मान्यताओं का पालन करना होगा या शादी करना ही बेहतर होगा।
बीएल शर्मा ‘अकिंचन’, तराना-उज्जैन