दूसरी ओर नेता रुपए पर अपना अलग राग जप रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नोटों पर देवी-देवताओं के चित्र छापने की बात कह दी। हम इसको चुनावी राजनीतिक बयान कह सकते हैं। इसके और कोई मायने हो भी नहीं सकते। देखा जाए तो विश्व की शीर्ष मुद्रा डालर पर तक कोई धार्मिक चित्र नहीं है। फिर भी वह वैश्विक स्तर पर सबसे ताकतवर मुद्रा है। वैसे भी भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है। इसमें किसी एक समुदाय विशेष का नेतृत्व नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा होता है तो कल अल्पसंख्यक वर्ग अपनी आवाज उठाएगा।
भारत की आबादी के बड़े हिस्से को नोटों पर देवी-देवताओं के चित्रों की जरूरत नहीं है, बल्कि अपनी मूलभूत आवश्यकता के लिए उसे नोट यानी पैसे की जरूरत है। उनके पास वित्तीय समावेशन के माध्यम से जनधन के खाते तो खुल गए, पर उनके खाते खाली पड़े हैं, क्योंकि उनकी मजदूरी घर चलाने में ही चली जाती है। बचत के लिए कुछ नहीं बचता है। बात वही हुई। जिसका पेट भरा, उसके मुंह से राम निकला, जिसका पेट खाली उसके मुंह से रोटी। इसलिए कुछ ऐसा करने की जरूरत है जिससे गरीब आबादी को पहले काम मिले और फिर उससे नोट। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ध्यान में रख कर आर्थिक नीतियां बनाने की जरूरत है। इसलिए नोटों पर देवी-देवताओं के चित्र छापने की सलाह देने के बजाय कुछ ठोस बदलाव करने की है।
कुंवर विक्रांत मेहरा, इंदौर।
जहरीली हवा
दिल्ली और इससे सटे इलाकों में धीमी हवाएं चलने और पंजाब, हरियाणा में पराली जलाने के मामले बढ़ने से हवा बेहद जहरीली हो गई है। बड़े हिस्से में धुएं की परत छा गई है। ज्यादातर जगहों पर वायु गुणवत्ता का स्तर पांच सौ एक्यूआइ को पार कर गया है। इससे न सिर्फ दिल्ली, बल्कि इससे सटे राज्यों में भी लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा खड़ा हो गया है। दिल्ली में प्रदूषण के लिए पड़ोसी राज्यों में पराली जलाए जाने के अलावा वाहनों से निकलने वाला धुआं, दिवाली पर आतिशबाजी से पैदा हुआ धुआं, जगह-जगह कचरा जलाने और इसी तरह के कई अन्य कारण मौजूद हैं।
दिल्ली के प्रदूषण में पराली के धुएं का पैंतीस फीसदी योगदान है। लेकिन पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा ने इस समस्या से निपटने के लिए कोई कदम नहीं उठाया लगता है। जबकि पिछले पांच-छह साल से केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट तक इस मुद्दे पर गंभीर चिंता व्यक्त कर चुके हैं और दोनों राज्यों के रवैए को लेकर सख्ती भी दिखा चुके हैं। लेकिन अब तक पराली के निपटान की दिशा में कोई बड़ा काम होता नहीं दिखा।
हिमांशु शेखर, गया।
न्याय में देरी
हमारे न्यायालय बिना भेदभाव न्याय देने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन लंबित पड़े मुकÞदमे हमारी न्याय व्यवस्था का एक दुखद पहलू बन चुके हैं। कई बार न्याय मिलने में इतनी देरी हो जाती है कि उसका कुछ मतलब ही नहीं रह जाता। जजों की कमी, न्यायिक कार्यों के लिए संसाधनों का अभाव आदि चिंतनीय विषय हैं। इसके अलावा एक ही मुकÞदमा निर्णय आ जाने के बाद भी वर्षों तक उच्च अदालतों में चलता रहता है।
यह भी न्याय मिलने में देरी का एक बड़ा कारण है। अगर कोई व्यक्ति या संस्था निचली अदालत में मुकदमा हार जाती है तो इसके खिलाफ उच्च अदालतों के समक्ष दरवाजा खटखटाने का विकल्प खुला रहता है। इससे उन अदालतों पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है जिन्होंने मुकदमे की सुनवाई की और फैसला दिया। न्याय के समुचित अवसर सभी को मिलने चाहिए, लेकिन देखने में यही आता है कि इसका लाभ केवल सामर्थ्यवान ही ले जाते हैं क्योंकि उच्च न्यायालयों तक जाने के लिए जो धन व संसाधन चाहिए, वे साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं।
पुनीत अरोड़ा,मेरठ