आज लोगों के अंदर अपनों के प्रति मन में एक चिंता है, घर में सन्नाटा, अस्पतालों के बाहर चीख-पुकार, श्मशान और कब्रिस्तानों में कतारें लगी हुई हैं। गावों की भी कुछ भावुक करने वाली तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुई हैं, जिसमें एक बुजुर्ग साइकिल पर अपनी पत्नी की लाश लेकर दाह-संस्कार के लिए भटक रहे हैं। एक तस्वीर में एक शव को जेसीबी मशीन द्वारा उठा कर गड्ढे में गिराया जाता है। इसी तरह से उखड़ती सांसों को बढ़ाने के लिए एक महिला अपने मुंह से आॅक्सीजन देने की की कोशिश कर रही थी।

देश के अंदर स्वास्थ्य सेवाओं की चरमराई व्यवस्था से लोग आहत, चिंतित और हताशा से भरे हुए हैं। सरकारों का स्वास्थ्य को लेकर जो बखान सुनने को मिलता था, सबकी कलई खुलती दिख रही है। सरकार की ऐसी व्यवस्था की वजह से ही समाज के कुछ हृदयहीन व्यक्तियों का भी चेहरा उजागर हुआ है, जो इंसान की मजबूरी और लाचारगी का फायदा उठाते हैं।

ऐसे सभी जरूरी उपकरणों का वे जमाखोरी और उसके बाद उसकी कालाबाजारी करते हैं। जरूरतमंद उसका भुगतान करने लिए जेवर और मकान बेच कर अपनों की सांसों को बचाने की कीमत देने पर मजबूर हैं। उसमें भी अगर दवाएं या इंजेक्शन नकली निकल जाए तो उसके कारण मृत्यु हो जाती है। इस दर्द को शायद शब्दों में लिखना कठिन है। यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता। अस्पताल के बाहर शव को श्मशान या कब्रिस्तान ले जाने के लिए एम्बुलेंस वाहनों के मालिकों द्वारा अधिक किराया वसूलना भी आहत करता है।

मगर ऐसे घृणित कार्यों के बीच समाज में इंसानियत की भी कई मिसालें देखने को मिली हैं। यह सत्य है कि ऐसी आपदा में सरकार ही नहीं, समाज के लिए भी चिंता और चुनौतियां होती हैं। बहुत सारे लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार पीड़ितों के साथ खड़े रहते हैं। भारत के लिए कहावत है कि भारत एक विविधता में एकता का देश है। अनेक फूलों का एक गुलदस्ता है।

ऐसे तमाम उदाहरण सामने आए जिनमें विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और स्वयंसेवी संगठनों ने निजी स्तर पर पीड़ितों और जरूरतमंद लोगों के दुखों को बांटा और अपना समझा है। आॅक्सीजन की कमी के कारण जब लोग दम तोड़ते दिखे, ऐसे में एक गुरुद्वारे में आॅक्सीजन बैंक शुरू किया गया और लोगों को तब तक आॅक्सीजन देते रहे, जब तक अस्पताल में बिस्तर की व्यवस्था न हो गई।

इससे प्रेरित होकर कई और संस्थाओं ने आॅक्सीजन जरूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए हाथ बढ़ाए। नागपुर के प्यारे खान ने आपदा के समय अपने टैंकरों से नागपुर के साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों में आॅक्सीजन पहुंचाने का काम किया। समाज सेवा से प्रेरित होकर भोपाल के एक आॅटो चालक ने अपने पत्नी के गहने बेच कर अपने आॅटो में आॅक्सीजन सिलेंडर लगा कर जरूरतमंदों को अस्पताल तक छोड़ने का काम किया। ये सभी सेवाएं बिना किसी लोभ-लालच से किए गए।

राजनीतिक संगठनों ने भी अपने अपने इलाकों में कार्य किया है, मगर जवाबदेही उनकी ज्यादा हो जाती है जो सत्ता में हैं। जाहिर है, लोगों के अंदर आज भी बिना किसी सरकारी सुविधाओं के लोगों की मदद करने, बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे के कदृ को दूर करने की ललक है। लेकिन सरकार की अव्यवस्था में कई बार ऐसी संवेदनाएं दब कर रह जाती हैं।
’मोहम्मद आसिफ, जामिया नगर, दिल्ली</p>

कैद में बचपन

बचपन हर इंसान के जीवन का सबसे स्वर्णिम दौर होता है। बचपन हर चिंता, फ्रिक, जाति-धर्म, ईर्ष्या-द्वेष से दूर रहता है। इसलिए भगवान को भी बच्चे प्यारे लगते हैं। मगर आज कोरोना महामारी ने बच्चों का बचपन छीन लिया है। बच्चों के स्कूल एक वर्ष से लगातार बंद है। वे घरों के अंदर कैद हो गए हैं। बचपन टीवी और मोबाइल में सिमट कर रह गया है।

टीवी और मोबाइल की लत से बच्चों में नकारात्मक भावना बढ़ती जा रही है। छोटे बच्चों में भी हिंसक प्रवृत्ति देखी जा रही है। कुछ विद्यालयों ने आॅनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था शुरू की, लेकिन यह बच्चों के लिए कोई कारगर व्यवस्था सिद्ध नहीं हो सकी और इसकी पहुंच भी सीमित बच्चों तक है। बच्चे घरों में रहने के कारण अकेलापन महसूस कर रहे हैं, उनके व्यवहार में अंतर देखा जा रहा है।

इस परिस्थिति में माता-पिता को बच्चों के ऊपर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। उन्हें अपने दोस्तों की कमी नहीं खलनी चाहिए। सरकार जिस तरह से सामुदायिक किचन की व्यवस्था की है, उसी प्रकार से बच्चों के लिए भी सामुदायिक पाठशाला की व्यवस्था होनी चाहिए, टीवी और रेडियो की मदद से भी बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था शुरू करनी चाहिए। बच्चे परिवार और देश का भविष्य होते हैं। बच्चों का बचपन बचाना हर अभिभावक, समाज और सरकार का कर्तव्य है।
’हिमांशु शेखर, केसपा, गया, बिहार</p>