सुशासन जैसे शब्द के बड़े गहरे निहितार्थ हैं। लिहाजा इस शब्द से किसी राजनेता को तभी नवाजा जाना चाहिए, जब उसकी सत्ता के दौर यानी कार्यकाल खत्म हो जाएं। लेकिन नीतीश कुमार को उनके कार्यकाल के दरमियान ही सुशासन बाबू से नवाजा गया। उसकी बुनियाद पर वे देश का नेतृत्व हासिल करने की हसरत पाल रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है।
मौजूदा राजनीतिक हालात में चूंकि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की स्थिति कमजोर हुई है तो विपक्ष से प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार उभरे हैं। संयोग की बात है कि इधर पश्चिम बंगाल, बिहार और महाराष्ट्र से जो घटना सामने आई हैं, वह सुशासन के मानकों पर खरे नहीं उतर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन के नाम पर पुलिस की पिटाई, महाराष्ट्र में बच्चा चोरी के संदेह में साधु की पिटाई, बिहार में कथित ‘साइको किलर’ की तरह की आपराधिक घटनाएं सुशासन पर बट्टा है।
दिलचस्प है कि इन तीनों राज्यों में सरकार में सत्ता पक्ष और विपक्ष के सभी दलों की सरकार हैं या पंचवर्षीय कार्यकाल में रही हैं। सुशासन कोई व्यक्ति विशेष यानी राजनेता के अदला-बदली से आने वाला नहीं है, बल्कि यह विशिष्ट राजनीतिक या दलीय संस्कृति का द्योतक है, जिसकी सबसे पहली शर्त है कानून व्यवस्था। मगर इस मोर्चे पर सभी दलों की सरकार कठघरे में खड़ी है। आखिर किसी राज्य में कथित ‘साइको किलर’ क्यों पैदा होता है? अफवाह क्यों फैला दी जाती हैं? आंदोलन के नाम पर हिंसा क्यों फैलती है?
क्या इन सब बातों का विशिष्ट राजनीतिक संस्कृति से संबंध नहीं है? सुशासन के लिए जिस तरह की दलीय या राजनीतिक संस्कृति चाहिए। हमारे देश में उसका घोर अभाव नहीं है? माना कि दल व दबाव समूह में मूलभूत अंतर सत्ता प्राप्ति की चाह का है। पर क्या दलों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे ऐसी राजनीतिक संस्कृति विकसित करें, जिससे सुशासन संभव हो? क्या राज्यों के विकास के बिना देश का विकास संभव है?
मुकेश कुमार मनन, पटना</p>
रक्षक का दायित्व
सामाजिक संपन्नता का अर्थ है कि मनुष्य सुखी हो, नागरिक स्वतंत्र हो और राष्ट्र महान हो। विक्टर ह्यूगो की यह पंक्ति हमें यह बताने की कोशिश करती है कि हमारा जीवन कैसा होना चाहिए। आए दिन समाज में बहुत सारी ऐसी घटनाएं होती हैं, जिसे सुनना और दूसरों को बताना भी हमारे लिए दुर्लभ हो जाता है। समाज शांति से अपनी जिंदगी जिए, इसके लिए कई सारे नियम बनाए गए, कई सारी सजाओं के भी प्रावधान किए गए।
साथ ही मुजरिम या समाज को नुकसान पहुचाने वालों को पकड़ने के लिए पुलिस विभाग भी बनाए गए। लेकिन यह सोचने की बात है कि अगर रक्षक ही भक्षक हो जाए तो कैसी स्थिति होगी और कैसे समाज का निर्माण होगा। आज कई जगह लोग पुलिस के पास जाने से डरते हैं, अपनी समस्याओं को सहते रहते हैं और अपनी जिंदगी अपने ही हाथो नर्क बना लेते हैं।
कई बार कुछ लोग शिकायत भी करते हैं और परिणाम यह होता है कि उल्टे उन्हें ही परेशान किया जाता है, डराया जाता है, मानसिक रूप से उन पर दबाव डाला जाता। समाज में ऐसे कुछ पुलिस वालों की वजह से ईमानदार पुलिस वाले भी आज गलत नजरों से देखे जाते हैं। इसमें सुधार की जरूरत है और जो पुलिस वाले भक्षक बनकर बैठे हैं, उन पर सख्त कार्रवाई की भी जरूरत है और साथ ही लोगों को विश्वास दिलाने की भी जरूरत है कि पुलिस उनके लिए ही है। तब जाकर हमारे समाज में नागरिक स्वतंत्र रह पाएंगे, स्वतंत्रता महसूस कर पाएंगे और बिना किसी डर के अपनी जिंदगी जी पाएंगे।
अंजली प्रिया, मधेपुरा, बिहार