जब तिहत्तरवां संविधान संशोधन लागू हुआ था तभी से स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की तजवीज की जाती रही है। वर्ष 1992 में लागू हुए इस संशोधन ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित कर दिया। फिर उसी साल चौहत्तरवां संशोधन भी आया, और उसके जरिए ऐसी ही व्यवस्था नगर पालिकाओं और नगर निगमों में भी की गई। यह ऐसा कानून था जिसमें एक सीमा तक फेरबदल करने के अधिकार राज्यों को दिए गए। इसका लाभ उठाते हुए, नीतीश कुमार की अगुआई में बिहार पहला राज्य बना, जिसने पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण की सीमा तैंतीस फीसद से बढ़ा कर पचास फीसद कर दी।

बिहार की 2006 में हुई इस पहल से प्रेरणा लेते हुए राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश जैसे कई और राज्यों ने भी ऐसे कदम उठाए। ऐसे राज्यों की संख्या आठ हो चुकी है। इसी कड़ी में अगर पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण बढ़ा कर पचास फीसद करने के केंद्र सरकार के इरादे ने मूर्त रूप लिया, तो पूरे देश में पंचायतों की तस्वीर बदल जाएगी। पचास फीसद स्थान आरक्षित होने पर संभव है पंचायतों में स्त्रियों की भागीदारी आधी से कुछ अधिक हो। जैसे, बिहार में इस वक्त लगभग चौवन फीसद है। नतीजतन, स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की कमान स्त्रियों के ही हाथ में होगी। पर क्या व्यवहार में भी ऐसा हो पाएगा?

यह किसी से छिपा नहीं है कि पंचायतों में तैंतीस फीसद महिला आरक्षण की हकीकत क्या है। चुनी गई अधिकतर महिलाओं का कामकाज उनके पति या परिवार के अन्य पुरुष सदस्य करते हैं। कुछ मामलों में इसकी वजह अशिक्षा रहती है, पर ज्यादातर मामलों में इसका कारण समाज और परिवार का मर्दवादी नजरिया और ढांचा होता है। दलित, आदिवासी और अन्य कमजोर तबकों से आने वाली महिला सरपंचों को तो दोहरा दबाव झेलना पड़ता है। अपने परिवार के पुरुष सदस्यों की मर्जी के बिना वे कुछ नहीं कर सकतीं, पर दबंग जातियों के पुरुषों के आगे तो उनकी हालत और भी बेचारगी भरी रहती है। ऐसी खबरें जब-तब आती रहती हैं कि किसी दलित या आदिवासी महिला सरपंच को पंद्रह अगस्त के दिन झंडा फहराने से रोका गया; या बैठक में वह जमीन पर बैठी थी, ‘मानिंद लोग’ कुर्सियों पर।

पतियों द्वारा महिला सरपंचों के अधिकार हड़पे जाने का एक नतीजा यह भी हुआ है कि पंचायतों में भ्रष्टाचार बढ़ा है। बहुत-सी महिला सरपंचों को पता नहीं होता कि उनसे किस मद में किस हिसाब पर दस्तखत करवाया या अंगूठा लगवाया जा रहा है। स्त्री सशक्तीकरण का यह प्रावधान तो सकारात्मक और ऐतिहासिक था, पर इसका अमल बहुत लचर रहा है। वैधानिक स्तर पर इसमें इजाफा करने का उपाय सोचा जा रहा है, पर इसकी सार्थकता तभी होगी जब लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा का दर्जा और दायरा बढ़ाने तथा समाज की पुरुषवादी मानसिकता को बदलने का भी अभियान चले। पर सवाल यह भी है कि पंचायतों के स्तर पर स्त्री सशक्तीकरण की बात करने वाले विधायिका में महिला आरक्षण के मसले पर क्यों खामोश हैं! (राजेंद्र श्रीवास्तव, भोपाल)
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तर्क से परे
कुछ दिन पहले ही स्वामी स्वरूपानंद ने शिरडी के सार्इं बाबा और उनके भक्तों के सिर पर महाराष्ट्र में सूखा पड़ने का ठीकरा फोड़ा। उन्होंने स्त्रियों के शनि पूजा करने से बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होने के संकेत दिए। भला इस तर्क का आधार क्या है? सवाल है कि जब स्त्रियां शनि की पूजा नहीं कर रही थीं तो क्या उनके साथ बलात्कार की घटनाएं नहीं हो रही थीं? लोकतांत्रिक भारत में कौन किसकी पूजा करेगा, करेगा भी या नहीं यह सब नागरिकों का निजी मामला और संवैधानिक अधिकार है। देश के दस राज्यों में सूखे के हालात बने हैं, वहां कौन-कौन से भगवान इसके लिए जिम्मेदार हैं, शंकराचार्य ने यह नहीं बताया। लगता है, अब पहले भगवानों के धर्म निर्धारित होंगे और फिर तुरंत बाद उनकी जाति तय होगी, क्योंकि बिना जातीय पहचान के भारत की धरती पर कदम रखने की इजाजत नहीं है! क्या यह सब कुछ तर्क से परे नहीं है? (मुकेश कुमार, महावीर एन्कलेव, दिल्ली)
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प्रकृति के साथ
गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि जब कभी जंगलों में आग लगती थी तो आसपास के गांव वाले भी उसे बुझाने जाते थे। जो नहीं जाता था, उसे जंगल में घास, पतियार आदि नहीं काटने देते थे। यानी जंगलों की आग बुझाने की एक सामाजिक व्यवस्था थी। जल, जंगल, जमीन पर गांवों का हक-हकूक था। पर अब पलायन से गांव खाली हो रहे हैं। लोग आधुनिकता और आरामदेह जीवन शैली की ओर आंख मूंद कर भाग रहे हैं। यानी प्रकृति से दूर हो रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि प्रकृति के अनुकूल चल कर ही हम अपना अस्तित्व बचा पाएंगे। सरकारों को चाहिए कि वे ऐसी ठोस और कारगर नीतियां बनाएं जिनसे एक नए ग्रामीण भारत का उदय हो और लोग अपने घरों की ओर नए जोश और उत्साह के साथ लौट सकें। (लालसिंह सोलंकी, राजस्थान विश्वविद्यालय)
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तबाही की आग
हाल ही में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के जंगलों में लगी भीषण आग और इससे पूर्व केरल के मंदिर में आतिशबाजी से झुलस कर सैकड़ों लोगों की मृत्यु और देश का दिल कहलाने वाली राजधानी दिल्ली के अति विशिष्ट क्षेत्र नई दिल्ली में नेशनल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम का जल कर राख होना एक बड़ी तबाही है जिस पर सब स्तब्ध हैं। इससे हमारी शासन व्यवस्था की लापरवाही की पोल ही खुलती है। वन विभाग में इतने कर्मचारी और आज के इस अत्यंत वैज्ञानिक और साधन संपन्न समय में देश में अपार जनशक्ति होते हुए भी यह हाल है तो आगे क्या होगा? नेता और नौकरशाह अपने वेतन-भत्ते और सुख-सुविधाएं तो निरंतर फिजूलखर्ची के साथ बढ़ाने पर लगे हैं मगर इन्हें देश और जनता की कितनी चिंता है, यह सबके सामने है। देश में आज भी काम और दाम की कहीं कोई कमी नहीं है। कमी तो सिर्फ नीति और नीयत की ही है। (वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली)