‘परिधान बनाम काम’ (संपादकीय 1 जुलाई) पढ़कर सोलह आना सहमत हूं कि कामकाज की गुणवत्ता, समयबद्धता और दायित्व निर्वहन व्यक्ति की निष्ठा-सह-तत्परता से निर्धारित होगी, न की उसके पहनावे से। संपादकीय के अंकन अंश कसौटी पर खरे दिखते हैं कि जींस-टीशर्ट का आगमन विदेशी भूमि से हुई है। 1980 के दशक में ही बिहार सरकार के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के लिए ‘ड्रेस कोड’ तय थे। बहुत हद तक आज भी पालन किया जा रहा है।
विशेषकर सामान्य प्रशासनिक क्षेत्र के बड़े साहब यानी आयुक्त, कलेक्टर, एसपी, डीएसपी तथा एसडीएम के अधीन उनके अनुसेवक और वाहन चालक एक विशेष रंग के परिधान आज भी धारण किए रहते हैं। ठीक उसी प्रकार जिला अदालत, उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के अधीन काम करने वाले चतुर्थ वर्ग के कर्मी एक खास किस्म के कपड़े धारण करते हैं।
बिहार सरकार का 2019 और वर्तमान समय का आदेश सही प्रतीत होता है कि कर्मियों को औपचारिक परिधान में कार्यालय आना चाहिए। इससे कार्य संचालन में सहजता और सौम्यता का प्रतिबिंब देखा जा सकता है। सामान्य रूप से जींस-टीशर्ट ऐसे वस्त्र हैं जिसे हम अपने दैनिक जीवन के हर गतिविधि में पहन कर अपने को सामान्य महसूस करते हैं तो सरकारी कार्यालय के लिए इससे भिन्न वस्त्र होने चाहिए।
कपड़े की विशिष्टता सरकारी कार्यालय के वातावरण को प्रभावित करती है और संबंधित कर्मचारी के व्यक्तित्व के सौजन्य प्रदर्शन से अन्य को प्रेरित भी करती है। अब तो डिजाइन और फैशन के दिव्य आकर्षण ने उत्पादक कंपनियों को कटे-फटे जींस निर्माण करने को भी बाध्य कर दिया है।
मान्यता है कि ‘जैसा देश वैसा वेश’ के प्रचलन ने हमें शिष्टाचार और शालीनता का भी पाठ पढ़ाया है। हमारी वेशभूषा हमारे व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ कह देती है। आमतौर पर साक्षात्कार के लिए जाने वाले अभ्यर्थी प्रश्नोत्तर की अपेक्षा अपने परिधान पर ज्यादा केंद्रित दिखते हैं, जो उन्हें योग्य और अयोग्य होने की परिधि से संघर्ष कराती दिखती है। सरकारी कर्मचारी को सार्वजनिक जीवन के व्यक्तियों से अधिक सामना करना पड़ता है, इसलिए जरूरी है कि वे अपना लिबास ऐसा पहनें, ताकि वे खुद सहज महसूस करें।
पहनावे से हमारी संस्कृति का कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन पारंपरिक पहनावे से परिवेशीय गतिशीलता कायम रहती है। विचारणीय है कि विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं और प्रतिरक्षा क्षेत्र के जल, थल और नभ में सैनिकों और उसके ऊपर पदसोपानीय पंक्ति में सबके लिए परिधान घोषित और निर्धारित है तो देश की हर राज्य सरकार भी अपने विरासतीय मूल्य और आधुनिक प्रचलन में सामंजस्य के आधार पर विभिन्न कर्मचारी संघ के प्रतिनिधियों से वार्ता कर सहमति के आधार पर औपचारिक पहनावे के मानदंड निर्धारित कर सकती है। उल्लेखनीय आदर्श देश के सामने है कि बापू ने आधी धोती के पहनावे से ही वह सब कुछ कर दिखाया जो सबके वश की बात नहीं थी।
अशोक कुमार, पटना, बिहार।
विश्वास की जरूरत
मणिपुर में पिछले दो माह से ज्यादा से चल रही हिंसक वारदात में एक सौ से अधिक लोगों की हत्या कर दी गई, इससे ज्यादा घायल हुए और हजारों लोग विस्थापित हो चुके हैं। ‘मणिपुर की चिंता’ (संपादकीय, 27 जून) में भी उल्लेख है कि केंद्र सरकार के ढीले रवैये और मणिपुर सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति के चलते हो रही हिंसा अब दो समुदाय के बीच में हो रही है। हिंसा रोकने के प्रयासों को पूर्णतया सफलता नहीं मिलने पर आश्चर्य होना स्वाभाविक है।
गौरतलब है कि मैतेई और कुकी समुदाय के बीच हो रहे संघर्ष में मैतेई समुदाय को म्यांमा के उग्रवादियों का समर्थन मिलने की खबरें भी आई हैं। यह घातक है। स्थिति को नियंत्रित करने में पुलिस और सुरक्षा बल के जवानों भी हिंसा के शिकार हो रहे हैं। शांति बहाली के लिए केंद्र सरकार को विदेशी उग्रवादियों और दोनों समुदाय के हिंसक तत्त्वों को दबाना होगा। इसमें विपक्ष का सहयोग भी लेना होगा, वरना लगी आग की लपटें अन्य प्रदेशों में भी फैल सकती हैं।
बीएल शर्मा ‘अकिंचन’, तराना, मप्र।
फ्रांस में अराजकता
फ्रांस में पिछले कुछ दिनों से उपद्रव थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। शायद कुछ और दिन तक ऐसी ही अराजकता का माहौल बना रहेगा। फिर सब कुछ शांत हो जाएगा। जैसे अमेरिका में मई 2020 में छियालीस वर्षीय अश्वेत अमेरिकी जार्ज फ्लायड को वहां के श्वेत पुलिस अधिकारी ने खुलेआम गला दबाकर मार डाला था। वहां भी लोग हफ्तों तक सड़कों पर रहे। विरोध प्रदर्शनों के अलावा तोड़फोड़ और आगजनी हुई। फिर सब कुछ सामान्य हो गया। फ्रांस में भी यही होगा।
दरअसल, सत्रह वर्षीय अल्जीरियाई फ्रांसीसी मूल के किशोर को जिस तरह से श्वेत पुलिस वाले ने मारा, उसकी मंशा के पीछे उन बहुत सारे गोरे फ्रांसीसी निवासियों की भावना छिपी हुई है, जो उग्र राष्ट्रवाद और नस्लवाद के समर्थक हैं। उग्र दक्षिणपंथी सांसदों ने तो राष्ट्रपति से आपातकाल का घोषणा करने की भी मांग की, ताकि विरोध कर रहे लोगों को सबक सिखाया जा सके।
दरअसल, यूरोप के हर उन्नत समाज में इसी तरह की नफरत अपने आप्रवासी, अश्वेत पड़ोसियों, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए बढ़ती ही जा रही है। आगे चलकर इसी तरह का हंगामा और ऐसी अस्थिरता और बढ़ने वाली है।
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर।
बारिश के बाद
मानसून के आते ही एक तरफ लोगों को गर्मी से राहत मिलती है, तो दूसरी तरफ चिंता भी बढ़ जाती है। बारिशों से सड़कों पर जगह-जगह जलभराव हो जाता है। सुनियोजित शहर होने के बावजूद चंडीगढ़ और मोहाली में जल निकासी की व्यवस्था चरमरा जाती है। बाकी जगहों की दशा अलग नहीं होती। इस मामले में देश के ज्यादातर शहरों की बदहाली देखी जा सकती है।
सड़कों के किनारे, गलियों में और दुकानों की पार्किंग में पानी भरने से लोगों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सड़कों पर गड्ढे होने की वजह से उनमें पानी भर जाता है, जिस वजह से हादसों का खतरा बढ़ जाता है। जगह-जगह जाम लग जाते हैं। सरकार को चाहिए कि नालों की साफ-सफाई कर जल निकासी के उचित प्रबंध किए जाएं, ताकि आम जनता को मुश्किलों का सामना न करना पड़े।
अभिलाषा गुप्ता, मोहाली ।