रक्षा, विमानन, फार्मास्यूटिकल, खाद्य प्रसंस्करण, प्रसारण, पशुपालन, निजी सुरक्षा एजेंसी, सिंगल ब्रांड रिटेल आदि नौ क्षेत्रों में शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की स्वीकृति संबंधी केंद्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय को लेकर आर्थिक नीतियों पर नए सिरे से बहस की आवश्यकता है।
नब्बे के दशक में शुरू हुई नई आर्थिक नीतियों का आधार निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण रहा है। निजीकरण की प्रक्रिया में एक ओर सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश और सार्वजनिक क्षेत्र को हतोत्साहित करने की, तो दूसरी ओर निजीकरण को बढ़ावा देने और प्रोत्साहित करने की नीति अपनाई गई। निजी क्षेत्र का एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाना होता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, वित्त सहित सभी क्षेत्रों में इन नीतियों को लागू करने और मुनाफे की हवस ने इन सेवाओं की उपलब्धता को दुष्कर बना दिया है।
उदारीकरण के तहत कृषि उपज के आयात से मात्रात्मक प्रतिबंध हटाए गए, बीजों के पेटेंटीकरण को लागू किया गया, बीज, खाद, बिजली, कीटनाशक आदि के दाम बढ़े, पर उपज के वाजिब दाम की कोई नीति नहीं निर्धारित की गई। कृषि जिंस को भी वायदा बाजार के हवाले कर दिया गया। नतीजतन एक तरफ उपभोक्ताओं पर महंगाई की मार पड़ी तो दूसरी तरफ कर्ज के बोझ तले हताशा में किसानों ने आत्महत्या की। दूसरी ओर, विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर कृषि भूमि अधिग्रहित कर कौड़ियों के भाव वितरित की गई। लाखों करोड़ रुपए की करों में छूट दी गई। श्रम कानूनों को लचीला बनाया गया, जिसके फलस्वरूप औद्यौगिक घरानों के मुनाफे में तो कई गुना वृद्धि हुई, पर उत्पादन और रोजगार में तुलनात्मक वृद्धि नहीं हुई। श्रमिकों का शोषण और असुरक्षा बढ़ी और रोजगारविहिन विकास की संज्ञा सामने आई है। भूमंडलीकरण ने पूंजी के मुक्त प्रवाह की राह आसान बनाई। आवारा पूंजी किस तरह रातोंरात हवा होकर अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है, दक्षिणी एशिया के टाइगर कहे जाने वाले देशों की स्थिति और हाल ही का ग्रीस का संकट इसका बड़ा उदाहरण है।
आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया तेज करने की दिशा में मोदी सरकार उत्साह दिखा रही है। आर्थिक सुधारों और अंधाधुंध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति के पहले नई आर्थिक नीतियों और उनके परिणामों पर एक श्वेतपत्र जारी किया जाना चाहिए और यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि इतने वर्षों में औद्यौगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को करों आदि में कितनी छूट प्रदान की गई है। आबंटित भूमि का कितना उपयोग हुआ है, उत्पादन, रोजगार, निर्यात वृद्धि में इनका क्या योगदान रहा है।
ऐसा न हो कि हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति का लाभ लेकर हमारे देश के प्राकृतिक, मानव संसाधनों और बाजार का दोहन कर बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुनाफा समेट कर ले जाएं और अपशिष्ट के ढेर और दूषित पर्यावरण हमारे हिस्से आएं। इन स्थितियों में आर्थिक नीतियों पर बहस और जनमत की आवश्यकता है।
’सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर</p>