बैंकों को कर्ज न चुकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई के तमाम अधिकार रहते हैं। अगर न चुकाने के मामले इक्का-दुक्का हों तो बैंकों के कारोबार के आकार को देखते हुए उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता; किस्त न चुकाने वाले के खिलाफ कार्रवाई करते हुए वे अपना कामकाज करते रह सकते हैं। लेकिन भारत में स्थिति बहुत असामान्य हो चली है। सरकारी बैंकों का एनपीए (नॉन परफार्मिंग एसेट्स यानी गैर-निष्पादित संपत्तियां) इतना बढ़ गया है कि रिजर्व बैंक भी चिंतित है और वित्त मंत्रालय भी। अगर कोई छोटा कर्जदार डिफाल्टर हो, तो उसकी संपत्ति कुर्क की जा सकती है। पर एनपीए का मामला छोटे उधार का नहीं है। एनपीए वाले कर्ज कुछ करोड़ से हजारों करोड़ तक के हैं। नियम के मुताबिक अगर कोई तीन महीने तक किस्त नहीं चुकाता, तो उसे दोषी की श्रेणी में मान लिया जाता है। पर एनपीए के सूरमा बरसों तक बैंकों से लिए गए कर्ज का ब्याज या मूलधन नहीं चुकाते, और उनमें से ज्यादातर कार्रवाई से बचे भी रहते हैं। फिर वे प्रस्ताव करते हैं कि उनके लिए हुए कर्ज को पुनर्गठित किया जाए, ताकि उन्हें चुकाने में सहूलियत हो। फिर ‘पुनर्गठन’ के नाम पर भारी रियायत दे दी जाती है। पर इससे ईमानदारी से कर्ज चुकाने वालों के बीच गलत संदेश जाता है। कई मामलों में तो पुनर्गठन भी नहीं होता, कर्ज की रकम डूबी हुई मान कर बट््टे खाते में डाल दी जाती है।
गौरतलब है कि सरकारी बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ता गया है। इस साल यह सितंबर में 3.14 लाख करोड़ पर पहुंच गया, जो कि उनके द्वारा मंजूर किए गए कुल कर्जों का 5.64 फीसद है। एनपीए बढ़ने से अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान जगजाहिर हैं। बैंकों की काफी पूंजी फंसे कर्ज की चपेट में रहने से उनकी आय पर बुरा असर पड़ता है। दूसरे, उनके पास उसी अनुपात में कारोबार के लिए पूंजी कम हो जाती है। कई अच्छी परियोजनाओं को या तो एकदम नहीं, या जरूरत भर का ऋण नहीं मिल पाता है और इसका नुकसान उन परियोजनाओं के साथ-साथ समूची अर्थव्यवस्था को भी होता है। फिर, इसका खमियाजा अन्य ग्राहकों को भी भुगतना पड़ता है। बैंक फंसी रकम की क्षतिपूर्ति के लिए नए कर्जों पर ब्याज दर बढ़ा सकते हैं। अमूमन एनपीए में बढ़ोतरी को अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत से जोड़ कर देखा जाता है। यानी किन्हीं कारणों से अर्थव्यवस्था के किसी क्षेत्र का प्रदर्शन निराशाजनक होगा, तो उस क्षेत्र में लिए गए कर्जों के फंसने की ज्यादा आशंका रहती है।
सवाल यह है कि जिस वक्त अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है उस वक्त सरकारी बैंकों का एनपीए कम होने के बजाय बढ़ता क्यों जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये बैंक कर्ज के बड़े आवेदन को मंजूर करने से पहले प्रस्तावित परियोजना की कारोबारी संभावनाओं का ठीक से आकलन नहीं कर पाते? या, कुछ मामलों में उन्हें दबाव में फैसले करने पड़ते होंगे? यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऋण मंजूरी की प्रक्रिया में कोई बेजा दखल नहीं होगा। (अनिल धीमान, नंदनगरी, दिल्ली)
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अफसोस की बात
आज देश में कुछ लोगों की मानसिकता इतनी निम्न स्तर की हो गई है कि राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ को भी मजहब से जोड़ने पर तुल गए हैं। ऐसी कट्टरवादी विचारधारा हमेशा समाज का विनाश करती है। जो लोग देशभक्ति का भाव रखते हैं वे कभी भी जन गण मन या वंदे मातरम का अपमान नहीं कर सकते।
तिरंगे या राष्ट्रगान का अपमान करना उन बलिदानियों का अपमान करना है जिन्होंने हमें आजादी दिलाई। यह अफसोस की बात है। सरकार को चाहिए कि राष्ट्रगान या राष्ट्रध्वज का अपमान करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा दे ताकि भविष्य में कोई ऐसा कार्य न करे। (केसरी नंदन, आंबेडकर कॉलेज, दिल्ली)
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मुनाफे का मद
आंध्र प्रदेश में 1995 में, जब एनटी रामराव का दूसरा कार्यकाल था, पूर्ण शराबबंदी लागू हुई थी मगर दो साल बाद उनके उत्तराधिकारी चंद्रबाबू नायडू ने उस फैसले को पलट दिया। तमिलनाडु में द्रमुक की सरकार ने 1971 में मद्यनिषेध लागू किया और तीन साल बाद वापस ले लिया था। एमजी रामचंद्रन ने 1981 में शराब से पाबंदी हटाई और 1987 में फिर से लगा दी। हरियाणा में बंसीलाल सरकार के दौरान जोर-शोर से लागू हुई शराबबंदी केवल दो साल रही थी। पीछे हट जाने की एक बड़ी वजह राजस्व में आई कमी रही होगी।
अब बिहार सरकार भी अपने शराबबंदी के इरादे से राजस्व के तौर पर चार हजार करोड़ रुपए के संभावित नुकसान को देखते हुए पीछे हटती लग रही है। मगर राजस्व के नुकसान के बावजूद लाटरी तो बंद की ही गई थी। दरअसल, समाज के व्यापक हित को राजस्व की दलील देकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर राजस्व का उद््देश्य जन-कल्याण ही तो है। राजस्व के नाम पर किसी ऐसी चीज को बढ़ावा क्यों मिलना चाहिए, जो समाज में सुख-शांति को नष्ट करने वाली हो? (हिमांशु गोस्वामी, प्रीत विहार, बुलंदशहर)
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आतंक के खिलाफ
पेरिस पर हुए हमले के बाद से हर अंतरराष्ट्रीय मंच से आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की प्रतिज्ञाओं के स्वर और तेज हो गए हैं। पर यह सवाल अब भी अनसुलझा है कि कोई देश आतंकवाद के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल होने दे, तो क्या कदम उठाए जाएं। यों जब भी ऐसी घटनाओं के मद््देनजर पाकिस्तान की जवाबदेही का मसला उठा है, पाकिस्तान यह कह कर उसे दरकिनार करने की कोशिश करता है कि ये तत्त्व पाकिस्तान के नुमाइंदे नहीं हैं, इनसे उसका कोई लेना-देना नहीं है। पर क्या इससे पाकिस्तान की जवाबदेही का सवाल खत्म हो जाता है?
गौरतलब है कि कुछ माह पहले पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने कबूल किया था कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में उनका हाथ रहा है। इसी तरह पाकिस्तान के दूसरे हुक्मरानों का भी रहा होगा। हकीकत पहले भी छिपी नहीं थी पर यह एक बड़ी विडंबना की ओर संकेत करती है। तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के साझा संकल्पों के बावजूद कोई ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बन पाई है जो मुशर्रफ के खुलासे के मद्देनजर कार्रवाई कर सके? (विनय रंजन, मुखर्जी नगर, दिल्ली)

