केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा मुल्क को कांग्रेस मुक्त बनाने की इतनी हड़बड़ी में है कि वह लोकतांत्रिक नियम कायदों और संवैधानिक प्रक्रियाओं को ताक पर रखते हुए राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अपनी शक्ति का बार-बार इस्तेमाल कर रही है। वह सदन में विश्वास मत-विमत परखे बिना धारा 356 का दुरुपयोग कर रही है। अरुणाचल प्रदेश के बाद उसका अगला शिकार उत्तराखंड बन गया था और मणिपुर की तैयारी थी। लेकिन शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप और उसकी देखरेख में उत्तराखंड विधानसभा में मिले विश्वास मत से तस्वीर बदल गई और मोदी सरकार की किरकिरी हुई। बावजूद इसके भाजपा सरकार इससे कितना सबक लेगी, कहा नहीं जा सकता। जब उत्तराखंड में छह महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होने हैं, तो भाजपा को ऐसी क्या जल्दी थी कि चुनी हुई सरकार को बिना विश्वास मत का अवसर दिए अपदस्थ करे? क्या लोकतंत्र में उसका विश्वास खत्म हो रहा है?
भले भारत में घोषित इमरजेंसी न हो, पर लोकतांत्रिक संस्थाओं-प्रक्रियाओं को किनारे करने और सुनवाई के रास्तों को बंद करते जाने के तौर-तरीके इमरजेंसी के हालात को ही दर्शाते हैं। जो राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालय भाजपा-आरएसएस की विचारधारा के अनुकूल आचरण नहीं कर रहे हैं, वहां मोदी सरकार के भेदभाव और अनावश्यक हस्तक्षेप के उदाहरण सामने आ रहे हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति ने आखिर तंग आकर अपनी व्यथा मीडिया के सामने बता ही दी। भाजपा शासित राजस्थान में स्कूली पाठ्यक्रम बदला जा रहा है। नेहरू और झांसी की रानी को पाठ्यक्रम से निकाला जा रहा है। जिन विश्वविद्यालयों में छात्रों के संगठन आरएसएस की विचारधारा से नहीं जुड़े हैं, उनकी सुनवाई नहीं है। उन्हें छात्रवृत्ति न देकर उलटा देशद्रोह के आरोप में फंसाया जा रहा है, जुर्माना लगाया और निष्कासित किया जा रहा है।
संस्कृति और एकात्म मानववाद की दुहाई देने वालों को शायद इनके अर्थ ही मालूम नहीं हैं। मानवता के प्रति न तो इनकी संवेदना है और न ही सरोकार। सूखे से प्रभावित क्षेत्रों में सामने आ रही दुश्वारियों की खबरों के बीच सरकारी बेरुखी पर लगी जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए शीर्ष न्यायालय की यह तल्ख टिप्पणी गौरतलब है कि ‘सूखे के हालात के बीच सरकार का शुतुरमुर्गी व्यवहार कतई न्यायोचित नहीं है। ठोस कार्ययोजना के साथ सरकार जवाब दाखिल करे।’ वित्तमंत्री जेटली जहां इस न्यायिक सक्रियता का रोना रो रहे हैं, वहीं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह साधुओं की जात बताते हुए वाल्मीकि साधुओं के साथ सिंहस्थ कुंभ में डुबकी लगाने के बाद ओेहदेदार साधुओं के साथ चांदी की थाली में भोज कर रहे हैं! इस मोह, माया और स्नान के बीच कहां हैं इनके ‘राम’। (रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर)
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दिल्ली दूर
बनारस रैली में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भाषण अच्छा था। पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार के सामने लुंज-पुंज विपक्ष को एकजुट कर एक नया विकल्प देने की सोच अच्छी कही जाएगी। समान विचारधारा वाले दलों के विलय और छोटे-छोटे दलों के साथ तालमेल कर आगे बढ़ने की उनकी रणनीति भी सराहनीय है। एक शक्तिशाली नेता के आगे नेस्तनाबूद हो चुके विकल्पों में से नए अंकुर का फूटना प्रजातंत्र के भविष्य के लिए शुभ ही होगा। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार एक ईमानदार नेता हैं और मंडल आयोग की उपज अन्य नेताओं की तरह उनका कोई निजी स्वार्थ भी नहीं दिखता। वे मुद्दे भी चुन-चुन कर उठा रहे हैं। शराबबंदी की बात कर जहां हर वर्ग की महिलाओं के दिल जीतने की कवायद कर रहे हैं, वहीं इसे लागू करने की चुनौती देकर मोदी सहित तमाम नेताओं की पेशानी पर बल डालने में सफल रहे हैं।
मगर सवाल है कि यह सब क्यों और किसलिए? उत्तर साफ है, अपेक्षित न करने वाली सत्ता को हटाने और उसकी जगह एक नई सत्ता खड़ी करने के लिए। नीतीश को ध्यान देने की जरूरत है कि किसी सूबे में उनके नीचे भी कोई सत्ता चल रही है। कहने की जरूरत नहीं कि वह सत्ता आजकल अपराधों को रोक न पाने के लिए अपयश का शिकार हो रही है। आगे बढ़ने से पहले क्या पीछे देखने की जरूरत नहीं! दिल्ली तब तक दूर रहेगी जब तक आप पटना को ठीक नहीं करते। (अंकित दूबे, जनेवि, दिल्ली)
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बधाई के साथ
हर साल की तरह इस साल भी सिविल सेवा परीक्षा परिणाम घोषित होते ही चयनित उम्मीदवारों को बधाई देने का सिलसिला शुरू हो गया। अखबारों में इनके लिए बड़ी-बड़ी खबरें और कॉलम लिखे जाने लगे। मानो सिविल सेवा परीक्षा पास करना ही चयनित युवाओं की काबिलियत का एकमात्र पैमाना है। जबकि वास्तव में इनकी क्षमताओं की असल पहचान तब हो आएगी, जब ये इस व्यवस्था के अंदर आकर समस्याओं से सीधा सामना करेंगे। यह भी सच है कि हर साल सिविल सेवा परीक्षा में युवाओं की भीड़ इसलिए नहीं बढ़ रही है कि यह एक जनसेवा की नौकरी है। बल्कि इसलिए बढ़ रही है कि इसके बाद एक आलीशान जीवन इंतजार कर रहा होता है।
अधिकतर सिविल सेवक व्यवस्था का हिस्सा बन कर रह जाते हैं, जबकि उनके पास पर्याप्त शक्तियां होती हैं, जिनसे वह गरीबी, अशिक्षा आदि समस्याओं से निपटने के लिए काम कर सकता है। शायद सिविल सेवा में आने वाले युवाओं का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना रह गया है। हमारे समाज में भी यह बहुत बड़ी कमी है कि वह केवल किसी के नाम के साथ लगे आइएएस, आइपीएस आदि से प्रभावित हो रहा है, न कि उसके काम से। बहरहाल, चयनित सिविल सेवक जो वादे अखबारों में कर रहे हैं और जिस जिम्मेदारी के लिए उनका चयन हुआ है, उन्हें कुर्सी पर बैठ कर भूलें नहीं। (मनप्रीत सिंह, हांसी, हरियाणा)
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बिना हताश हुए
परीक्षाएं तो हो गर्इं अब परिणामों का मौसम है। सफल हुए सभी परीक्षार्थी बधाई के पात्र हैं। जो नहीं हो पाए उन्हें फिर मेहनत करनी है बिना हताश हुए, क्योंकि केवल यही परीक्षा भविष्य नहीं है। जीत कर हारना आसान है, पर हार कर जीतना विशिष्टता है। हमें विशिष्ट बन कर अपना भविष्य संवारना है, इसलिए बच्चों के साथ ही उनके माता-पिता और अभिभावकों को भी बहुत धीरज के साथ अपने बच्चों को नैतिक सहारा देना है। उज्ज्वल भविष्य के लिए आत्मविश्वास हमेशा बढ़ाए रखना बहुत जरूरी है। (शकुंतला महेश नेनावा, इंदौर)