‘फिजूलखर्ची और सरोकार’ (संपादकीय, 5 जुलाई) गंभीरतापूर्वक पढ़ा। उल्लिखित अंश सत्यता की कसौटी पर हुबहू सिद्ध हो रहा है। मूल विकास की योजनाओं के कार्यान्वयन से मुंह मोड़ती दिल्ली सरकार बेशक जनमत की नैसर्गिक आकांक्षा के अनादर की मन: स्थिति से गुजर रही है। सादगी की आड़ में जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त कर-राशि का अपव्यय विज्ञापन और सरकारी भवनों को आलीशान चमक-दमक देते हुए महंगी सामग्रियों से उसे सुसज्जित करने की सूचना सार्वजनिक विमर्श में है।
संपादकीय में विज्ञापन मद में किए गए खर्चे के आंकड़े चिंतित करने वाले हैं। यह स्थिति तो एक राज्य की दर्शायी गई है, लेकिन देश के अधिकांश राज्यों के इसी तरह के फिजूलखर्ची पर निगाह डालें तो आश्चर्यजनक हालात की कड़ी दिखती है। पिछले माह दक्षिण भारत के एक राज्य ने अपने स्थापना दिवस के अवसर पर प्राय: सभी प्रांतों से प्रकाशित होने वाले राष्ट्रीय समाचार पत्रों में चार से छह पृष्ठों का योजना उपलब्धि का विज्ञापन छपवाया।
उस विज्ञापित अंश के सभी पृष्ठों के आधे भाग लगभग खाली थे। सरकार चाहती तो दो पृष्ठ में भी अपनी उपलब्धि की सूचना प्रकाशित करा सकती थी। आखिर सुदूर प्रदेशों के वृहद विज्ञापन अंश से किस राज्य को क्या लाभ होगा, यह समझ से परे है।
इन दिनों राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की तीव्रता ने फिजूलखर्ची का एक और उदाहरण देखने का अवसर दिया है। कुछ प्रांतों के मुख्यमंत्री गैर-सरकारी कार्यों के निमित्त दूसरे प्रांतों की यात्रा सरकारी विमान या चार्टर विमान से करके सरकारी खजाने का बेजा इस्तेमाल करने में व्यस्त हैं। साथ ही साथ राजनीतिक बैठकों में दलीय कोष से खर्च नहीं करके प्रोटोकाल के नाम पर सरकारी धनराशि का अपव्यय किया जा रहा है।
आंकड़े साक्षी हैं कि अगर भारत सरकार सहित देश के तमाम राज्य अपनी फिजूलखर्ची पर नियंत्रण रखें तो देश में व्याप्त गरीबी रेखा में अपना जीवन यापन करने वालों की संख्या में बेहद कमी हो सकती है। यह दुर्भाग्य है कि देश के मुख्य महालेखा नियंत्रक और परीक्षक ने अभी तक किसी भी राज्य सरकार द्वारा की जा रही फिजूलखर्ची के लिए उसे दोषी ठहराते हुए कठघरे में खड़ा नहीं किया है।
वित्तीय विधान का कथन है कि किसी भी सरकारी राशि का किसी के द्वारा किए गए दुरुपयोग को सरकारी खजाने से ‘कपटपूर्ण निकासी’ माना जाता है। जनमानस को यह प्रतीक्षा रहेगी कि दिल्ली सरकार ने जो फिजूलखर्ची की है, उसे जांच-पड़ताल में कितना जिम्मेवार माना जाता है।
अशोक कुमार, पटना, बिहार।
निजता की सुरक्षा
सरकार द्वारा व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम लागू किया जाना स्वागत योग्य कदम है। इंटरनेट और स्मार्टफोन के इस युग में लोगों को हर काम में इनका भरपूर सहयोग मिल रहा है और अधिकांश काम घर बैठे हो जाते हैं। मगर जैसा कि हर सुविधा के साथ होता है इस सुविधा के भी दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं! डेटा चोरी के साथ-साथ लोगों के बैंक खाते से पैसे हड़प लेना सबसे बड़ी परेशानी का सबब है।
इस अधिनियम के साथ-साथ अब सरकार को लोगों को अपने खाते की सुरक्षा के बारे में भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध करवाना चाहिए, ताकि वे ठगी का शिकार न हों। साथ ही फर्जी पैन कार्ड और आधार कार्ड बनाने वाले तथाकथित आपरेटरों को सख्त सजा देने का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि यही लोग फर्जी खाता खोलने में सहायता देते हैं। अनधिकृत रूप से देश में प्रविष्ट लोगों के आधार कार्ड, पैन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र बना देते हैं कुछ पैसों के लालच में।
इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए सख्त कानून जरूरी है। साथ ही लोगों को आनलाइन लेन-देन में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। सबसे बड़ी बात किसी बड़े इनाम लाटरी के झांसे में लालच में फंसकर अपनी जानकारी कतई साझा नहीं करनी चाहिए! वैसे भी बैंक में कोई रकम भेजने के लिए किसी भी ओटीपी की जरूरत नहीं होती है और धोखाधड़ी करने वालों के लिए ओटीपी प्राप्त कर लेना ही उनके खाते को खोलने की चाबी बन जाता है! इसलिए खुद ही समझदार बनकर अपनी सुरक्षा करना अत्यावश्यक है।
विभूति बुपक्या, खाचरोद, मप्र।
समय रहते
‘दूतावासों की सुरक्षा’ (संपादकीय, 8 जुलाई) पढ़ा। यह अच्छा हुआ कि भारत ने कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका में सक्रिय खालिस्तानी चरमपंथियों की अराजक गतिविधियों को लेकर इन देशों से एक बार फिर यह कहा कि इस तरह की हरकतें अस्वीकार्य हैं। इन देशों को सख्त और सीधा संदेश देना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि वे अपने यहां के खालिस्तानी अतिवादियों के खिलाफ कोई प्रभावी कार्रवाई करने के स्थान पर जुबानी जमा खर्च कर रहे हैं।
इस मामले में सबसे शर्मनाक रवैया कनाडा सरकार का है। वहां के प्रधानमंत्री ने जिस तरह खालिस्तानियों के धमकी भरे और हिंसा की पैरवी करने वाले पोस्टरों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बता दिया, वह एक तरह से अतिवाद को खुले तौर पर दिया जाने वाला प्रश्रय है। चूंकि अमेरिका और ब्रिटेन की सरकारें भी अपने यहां के चरमपंथी खालिस्तानियों के खिलाफ ढुलमुल रवैया अपनाए हुए हैं, इसलिए इन देशों में भी उनकी अराजक और भारत विरोधी गतिविधियां बढ़ती चली जा रही हैं।
खालिस्तान समर्थक भारतीय दूतावास के साथ भारत के राजनयिकों की सुरक्षा के लिए भी खतरा बन रहे हैं, लेकिन कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका की सरकार ऐसे व्यवहार कर रही हैं, जैसे वे कुछ गलत ही नहीं कर रहे हैं।
सदन जी, पटना।
न्याय की गति
अदालतों में मुकदमों के बढ़ते बोझ की वजह से आम आदमी के लिए न्याय प्राप्त करना पत्थर पर दूब उगाने के समान हो चुका है। आज देश की विभिन्न अदालतों में करीब साढ़े चार करोड़ मामले लंबित हैं। तीन दशक पुराने मामले लंबित रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। न्यायालय से इंसाफ प्राप्त करने के लिए फरियादी अपने आभूषण और जमीन तक बेच देते हैं, लेकिन अदालतों से उन्हें सिर्फ तारीख पर तारीख मिलती रहती है।
कहा जाता है कि देर से मिलने वाला न्याय भी एक प्रकार से अन्याय के समान होता है। देश में न्यायाधीशों का कई पद रिक्त हैं, जिसे तत्काल भरना चाहिए। त्वरित न्याय के लिए न्यायपालिका और कार्यपालिका की कार्य प्रणाली में सुधार लाना चाहिए।
हिमांशु शेखर, केसपा, गया।