भारतीय मीडिया 273 न्यूज चैनलों और 82000 अखबारों के साथ तकरीबन 70-80 हजार करोड़ का उद्योग है। लेकिन विश्व रैंकिंग में इसका स्थान 130 के ऊपर (अफगानिस्तान से भी बदतर) है तो सवाल उठता है कि उसकी ऐसी दुर्दशा क्यों है? जब आप गौर से भारतीय मीडिया की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि वह अब खुद बाजार है। वह उन वर्चस्व की शक्तियों के साथ खड़ा है या कहें, उनका हिस्सा है, जिनके खिलाफ इस चौथे खंबे को खड़ा होना था। न्यूज चैनल खोलने के लिए जो मापदंड हैं उनके अनुसार भारत में आपको 24 घंटे में सिर्फ दो घंटे न्यूज चलाना जरूरी है बाकि आप गलाजत परोसते रहिए, कोई रोकने वाला नहीं।

आप देखते होंगे कि कैसे पैसे के बदले बाबाओं को समय दिया जाता है अपने चैनल पर। मीडिया मालिक पेड न्यूज को बंद नहीं करना चाहते क्योंकि यह उनके लिए आय का जरिया है। जिस टीआरपी का हवाला दिया जाता है, यह बताने के लिए कि जनता यही देखना चाहती है, उसका संबंध दर्शक से नहीं, बाजार से है। और जो टीआरपी है वह 70 फीसद शहरों पर आधारित है क्योंकि ‘बीएआरसी’ ने रेटिंग मशीनें अधिकतर शहरों में ही लगाई हैं जबकि भारत गांव का देश है और यहां 65-70 फीसद आबादी गांवों में रहती है। इसलिए आप देखते होंगे कि जब तक देश का कोई संकट शहर को नहीं छूता, तब तक वह संकट ही नहीं होता।

जब तक शहरों को पानी की कमी नहीं हुई तब तक मीडिया के लिए सूखा नहीं था। मिला-जुला कर कहें तो भारतीय मीडिया भारत का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता। अगर कोई पत्रकार हिम्मत भी करना चाहता है तो नहीं कर पता क्योंकि पत्रकार खुद हाशिये पर हैं, उनकी नौकरी में कोई स्थायित्व नहीं। मीडिया की स्वतंत्रता को अगर बचाना है तो क्रॉस मीडिया स्वामित्व के सवाल को जल्द ही हल किया जाए।

अब्दुल्लाह मंसूर, जामिया, दिल्ली</strong>