अच्छे साहित्य से ही अच्छे समाज का निर्माण होता है और एक अच्छे समाज से एक अच्छे राष्ट्र का निर्माण होता है। साहित्य भूत, वर्तमान और भविष्य तो बताता ही है, साथ में कला, संस्कृति, गुणों, तार्किक और गंभीर शैली को भी समझाता है। अच्छा साहित्य विविध रूपों से प्राकृतिक छवि दर्शाता, अलौकिक ज्ञान की अनुभूति कराता, रहस्यमयी युक्तियों की गुत्थी को भी सरलता पूर्वक सुलझाता है। समाज अनुभवों की एक व्यापक उर्वरक भूमि है, जहां से साहित्य को सामग्री मिलती है। मानवीय मूल्यों की रक्षा करते हुए उसे जनमानस तक ले जाने का सिद्ध कार्य साहित्य ने ही किया है।
इतिहास में इसके अनेक प्रमाण हैं कि साहित्य ने अपनी क्रांतिकारी विचारधाराओं से समाज में आश्चर्यजनक परिवर्तन किए हैं। फ्रांस की क्रांति के प्रेरणास्रोत रूसों और वाल्टेयर के लेख ही थे। मैजिनी के विचारों ने इटली को जीवनी प्रदान किया। भारतीय साहित्यकारों ने विदेशी शासन से जूझते हुए नौजवानों को मर-मिटने की भावना भर दी थी।
किसी भी राष्ट्र या समाज के सांस्कृतिक स्तर का अनुमान उसके साहित्य के स्तर से लगाया जा सकता हैं। साहित्य न केवल समाज का दर्पण होता हैं, बल्कि वह दीपक भी होता हैं, जो समाज का ध्यान उसकी बुराइयों की ओर दिलाता है और एक आदर्श समाज का रूप प्रस्तुत करता हैं। यह माना जाता है कि किसी देश की सभ्यता तथा संस्कृति के इतिहास को पढ़ने के लिए उसके साहित्य को ही पढ़ना पर्याप्त होता है।
इसीलिए साहित्य किसी देश, समाज तथा उसकी सभ्यता या संस्कृति का दर्पण होता है। साहित्य और समाज का अविच्छिन्न संबंध है। समाज यदि आत्मा है तो साहित्य उसका शरीर है। बिना साहित्य के समाज का स्पष्ट प्रतिबिंब नही देखा जा सकता है। साहित्यकार एक समाज का ही अंग होता है। उसकी शिक्षा-दीक्षा समाज में ही होती है। उसे सामाजिक जीवन में ही अपने भावों और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की प्रेरणा मिलती है।
समाज में जैसी परिस्थितियां और विचार होते हैं, साहित्य में भी वैसा ही परिवर्तन आ जाता है। अगर समाज में वीर भावना है, साहित्य में भी शौर्य की झलक मिलेगी। समाज या साहित्य रचने वाले के वर्ग में विलासिता का साम्राज्य है तो साहित्य भी शृंगारिक होगा। कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज परस्पर आश्रित और एक दूसरे के पूरक हैं।
नंद किशोर जोशी, बीकानेर।
जल से जीवन
जल प्रतिबल से आशय ऐसी स्थिति से है, जिसमें कोई देश जल संसाधनों की आवश्यकताओं की पूर्ति में अक्षम होता है। यह जल की गुणवत्ता में कमी और अपर्याप्त जल संसाधन के कारण उत्पन्न होती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत विश्व के उन सत्रह देशों में शामिल है जो अत्यंत गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं।
अत्यंत गंभीर जल संकट वाले देशों की सूची में भारत को तेरहवें स्थान पर रखा गया है और जनसंख्या इस श्रेणी के अन्य सोलह देशों की जनसंख्या से तीन गुनी से अधिक है। जल प्रतिबल औद्योगिक कचरा, शहरीकरण, प्रदूषण, वर्षा जल की बर्बादी, स्वच्छता की दयनीय अवस्था और कम जल स्तर के प्रभावों का प्रतिफल है। भारत की चौवन फीसद आबादी उच्च से उच्चतर जल प्रतिबल की चुनौती का सामना कर रही है।
जल प्रतिबल में प्रादेशिक विभिन्नता भी है। चंडीगढ़ सबसे ज्यादा जल प्रतिबल में प्रभावित है। उसके बाद हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश का स्थान है। उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के कुछ भाग वर्षा जल की कमी के कारण जल प्रतिबल से प्रभावित हैं। प्रायद्वीपीय भारत के राज्य, जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना अपर्याप्त वर्षा जल के कारण जल संकट की समस्या से ग्रस्त हैं। केरल जो वर्ष 2018 में बाढ़ का शिकार रहा था, जल प्रतिबल की समस्या से ग्रसित है। जिसका कारण उच्च तापमान एवं जल की कमी है।
इस चुनौती से निपटने के लिए वर्षा जल संचयन, दैनिक जल उपयोग में कमी, औद्योगिक कचरे का जैविक उपचार आदि को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही आम जनता को भी चाहिए कि पालिथीन और प्लास्टिक जैसे उपकरणों का निर्माण और उपयोग कम करे। इसके लिए सरकार को विशेष रणनीति बनाने की जरूरत है और इसे जमीनी स्तर पर प्रभावी करने के साथ-साथ इसका पालन नहीं करने वाले को दंडित करने की भी जरूरत है। जल के बिना हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
एस कुमार, चंदवारा, वैशाली, बिहार।
क्रयशक्ति की सीमा
भारत में कुल जीडीपी का लगभग चौवन फीसद सेवा क्षेत्र, यानी तृतीयक क्षेत्रक द्वारा निर्मित है। कुल जीडीपी के निर्माण में द्वितीयक क्षेत्रक का योगदान लगभग चौबीस फीसद है, जबकि प्राथमिक क्षेत्रक मात्र बाईस प्रतिशत के करीब ही जीडीपी में योगदान देता है। भारत की सर्वाधिक जनसंख्या प्राथमिक क्षेत्रक पर निर्भर है जो आय की असमानता को दर्शाता है।
यह चिंता का विषय है। सुधार की दिशा में कार्य करना आवश्यक है। विकसित देशों में जनसंख्या का बढ़ा भाग सेवा क्षेत्र में कार्यरत है। अगर भारत को भी विकसित देशों की कतार में अपना स्थान प्राप्त करना है तो कार्यशील जनसंख्या को प्राथमिक क्षेत्रक से दितीयक व तृतीयक क्षेत्रकों में स्थनांरित करना होगा। इसके लिए सर्वप्रथम प्राथमिक क्षेत्रक को सशक्त बनाना होगा, क्योंकि सेवा क्षेत्रक और द्वितीयक क्रियाओं के विस्तार के लिए उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति का बढ़ना आवश्यक है।
भारत का सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग प्राथमिक क्षेत्रक से संबद्ध है। प्राथमिक क्षेत्रक में कृषि पशुपालन, मतस्यपालन , वनों का कटान आदि क्रियाएं आती हैं। इनमे भी सर्वाधिक निर्भरता कृषि पर है। इसलिए वृहद सशक्त क्रय क्षमता वाले उपभोक्ता वर्ग के निर्माण के लिए सरकार को कृषि में मौजूद अपार संभावनाओं को साकार रूप देना होगा।
अगर कृषि में सुधार आएगा तो निश्चित ही ग्रामीण क्षेत्र में गुणवत्तायुक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन सेवाओं का विस्तार होगा जो करोड़ों युवाओं के लिए रोजगार उत्पन्न करेगा। इस तरह आर्थिक क्रियाओं में अंतर्संबंध दर्शाता है कि किसी भी क्षेत्रक को सरकार अपनी नीति में नजरअंदाज नहीं कर सकती है!
मोहम्मद अफजल, दिल्ली विवि।