भारत के पहाड़ों पर धार्मिक गतिविधियों के साथ ही साथ लोगों द्वारा बड़ी तादाद में मकान बनाए जा रहे हैं। पर्यटकों की संख्या के अनुपात में ही होटल दुकानें और अनय कई गतिविधियां निरंतर बढ़ती जा रही हैं। इसके लिए सरकार को पहाड़ी क्षेत्रों में होने वाली बसाहटों के लिए वैज्ञानिकों की अनुशंसा पर ही निर्माण कार्यों की अनुमति दी जानी चाहिए।

निर्माण भी वैसे, जिसमें लोहे और सीमेंट का उपयोग न्यूनतम हो और कम वजन में मजबूत भवन बनाने की तकनीक के आधार पर ही कुछ बनाने की अनुमति हो। साथ ही दो मंजिल से अधिक ऊंचे भवन बनाने पर रोक लगे। वहां की पारिस्थितिकी को सुरक्षित रखते हुए ही सभी प्रकार की गतिविधियों की इजाजत दी जानी चाहिए। साथ ही पर्यटकों सहित सभी रहवासियों के लिए प्लास्टिक का प्रयोग पूरी तरह प्रतिबंधित हो। जोशीमठ से सबक लेते हुए अन्य सभी पहाड़ी बस्तियों और पर्यटन स्थलों पर वैज्ञानिक अध्ययन करके सुरक्षा के उपाय किए जाने चाहिए!
सुभाष बुड़ावन वाला, रतलाम, मप्र

हिंसा का दायरा

कुछ लोग कहते है कि चाक-चौबंद कानून एवं सुरक्षा व्यवस्था हो तो बहुत कुछ रोका जा सकता है। जैसे अमेरिका के वैश्विक व्यापार केंद्र जैसी आतंकवादी घटना के बाद दूसरा कोई वारदात करने की हिम्मत किसी भी अलगाववादी गुट ने नहीं की है। ऐसा लगता है कि एक वैसे देश को आतंकवादी अपना निशाना बनाने के बारे में क्यों सोचें जहां आए दिन कोई आदमी अपने बंदूक से दस लोगों को मार देता हो। आतंकवादियों के हिस्से का काम तो वहां कोई आम आदमी ही कर रहा है। कभी किसी स्कूल में तो कभी व्यावसायिक परिसर में तो कभी इबादत गृह में।

अब जिस देश का छह साल का अबोध बालक भी अपने स्कूल शिक्षक को गोली मार सकता है तो फिर उस देश की संस्कृति को क्या कहा जाए? वर्जीनिया के न्यूपोर्ट न्यूज के रिचनेक एलीमेंट्री स्कूल में एक शिक्षक को गोली मारने के बाद एक बच्चे को पुलिस हिरासत में ले लिया। पच्चीस वर्षीय शिक्षिका एबी जवर्नर के पेट एवं बांह में गोली लगी। जिस देश की संस्कृति में छह वर्ष के बालक भी अपने स्कूल बैग में बंदूक रखता हो और न सिर्फ रखता है, बल्कि उसे इस्तेमाल भी करता हो, फिर उस देश में हर वर्ष बंदूक हिंसा से अगर दस हजार लोग मरते हों तो ऐसा लगता है कि यह समस्या अंदाजे से ज्यादा गंभीर है।
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर

नशे की राह

नववर्ष या किसी भी खुशी के अवसर पर बढ़ते शराबी उन्माद ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि युवा पीढ़ी कितनी तेजी से अपनी संस्कृति और संस्कार खोती जा रही है। पब, होटल और शराबखोरी जैसे अनैतिक कुकृत्यों में लिप्त युवा पीढ़ी से किस प्रकार के भविष्य की अपेक्षाएं की जा सकती हैं? क्या माता-पिता को अपनी संतानों के इस प्रकार दिग्भ्रमित होने की जरा भी जानकारी नहीं हो पाती है या फिर संतानों पर से उनका नियंत्रण कमजोर होता जा रहा है? क्या हमारे समृद्ध परिवार, हमारे वयोवृद्ध और शिक्षण संस्थाएं हमारी युवा पीढ़ी को सनातन भारतीय संस्कृति को हस्तांतरित करने में असफल हो रहे हैं? इसे पाश्चात्य संस्कृति की फूहड़ता ही कहा जा सकता है, जिसमें आधुनिकता के दिखावे के लिए शराबखोरी में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है।

अपराधियों में पुलिस और कानून का भय समाप्त होता जा रहा है, इसका एक कारण पुलिस की निष्क्रियता पर भी जाता है। आबकारी विभाग के आंकड़ों के अनुसार 31 दिसंबर को दिल्ली में एक दिन में सर्वाधिक शराब बिकने वाला दिन रहा। समाजशास्त्रियों और सामाजिक चिंतकों को भी इस दिशा में अब सोचने का समय आ चुका है।
रामबाबू सोनी, कसेरा बाजार, इंदौर</p>

समन्वय के सहारे

संपादकीय ‘अधिकार की सीमा’ (संपादकीय, 12 जनवरी) में उल्लिखित है कि उपराष्ट्रपति महोदय ने कहा है कि न्यायपालिका को विधायिका द्वारा बनाए कानून का पालन करना चाहिए। अवमानना करने या समकक्ष मानने से परस्पर नाराजगी बढ़ती है, जैसा कि इस समय हो रहा है। विधायिका की न्यायपालिका न सुने और न्यायपालिका की विधायिका न सुने या टालमटोल जारी रहे तो बढ़ते मतभेद टकराव की ओर मुड़ने से संवैधानिक समस्याएं खड़ी होती है।

गौरतलब है कि इस तरह की नाराजगी पूर्व में कानून मंत्री भी व्यक्त कर चुके है, जबकि न्यायपालिका भी नाराजगी जाहिर कर चुकी है। परस्पर नाराज होना और मुद्दे का हल न निकलना, बल्कि मामले को लंबित रखने के बजाय विधायिका के सिद्धांत और न्यायपालिका की स्वतंत्रता में समन्वय स्थापित करना जरूरी है। अच्छा हो कि संविधान को सर्वोच्च मानते हुए न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी समाप्त नहीं हो। इसके मद्देनजर ऐसा समन्वय स्थापित हो कि विधायिका और न्यायपालिका दोनों के प्रति आस्था और विश्वास बना रहे तथा जजों की नियुक्ति के समय पर हो सके, क्योंकि समय पर जजों की नियुक्ति न होने से न्याय में विलंब होता है।
बीएल शर्मा ‘अकिंचन’, उज्जैन

वोट और नोट

‘गरीबी के बरक्स बदलाव की राहें’ (लेख, 14 जनवरी) पढ़ा। हमारे देश में लगभग 80 करोड़ से भी ज्यादा आबादी सरकार से मिलने वाले अनाज पर निर्भर करती है। ये आंकड़ा सचमुच भयावह है और सरकार द्वारा दिखाई जा रही सुनहरी तस्वीर के बिल्कुल विपरीत है। जब आजादी के इतने वर्षों बाद भी देश की अधिकांश आबादी सरकार से मिलने वाले भोजन पर निर्भर करती है तब विकसित राष्ट्र बनने का तो सवाल ही कहां है? इसका सीधा-सा अभिप्राय है कि आजादी के बाद हमने जो शासन व्यवस्था चुनी, दोष कहीं न कहीं उसी में है।

यह गांधीजी के सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत शासन व्यवस्था है, जिसमें गरीबों को जानबूझकर गरीब रहने दिया गया, ताकि चुनाव के वक्त सब्जबाग दिखाकर उनके वोट हासिल किए जा सके, और अमीरों को और अमीर बनने दिया गया, ताकि चुनाव के वक्त उनसे नोट हासिल किए जा सके।
नवीन थिरानी, नोहर, राजस्थान