लेकिन हिंदी या अंग्रेजी के इस विवाद को तूल देने के बजाय इसका तर्कसंगत और उचित हल निकाला जाना चाहिए। यह सर्वविदित है की वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट की सरकारी भाषा अंग्रेजी है, पर यह भी सच है की अंग्रेजों से आजादी हासिल करने के पचहत्तर साल बाद भी हम अपनी मातृभाषा हिंदी को वह सम्मान देने में असफल रहे हैं जो हिंदी को दिया जाना चाहिए था।

पिछली सरकारों ने क्या गलतियां कीं और वर्तमान सरकार क्या कर रही है, इस विवाद में पड़ने के बजाय हमें इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए और कटिबद्ध होकर बिंदुवार तरीके से हल के लिए ऐसे ठोस प्रयास करना चाहिए, जिससे न्याय व्यवस्था विपरीत रूप से प्रभावित भी न हो और वर्तमान न्यायाधीशों की कार्यक्षमता में किसी तरह का व्यवधान या ह्रास भी न हो। आखिरकार बहुत सारे अन्य देश भी तो अपनी मातृभाषा में संपूर्ण प्रशासनिक कार्य करते ही हैं।

भारतीय संविधान ने हिंदी को राजभाषा का तमगा तो दे रखा है, लेकिन इस ताज को मस्तक पर धारण करवाने की हिम्मत कोई सरकार नहीं कर सकी। कानून की उच्च शिक्षा और पाठ्यपुस्तकों का सरल तथा सर्वसुलभ हिंदी भाषा में अनुवाद, रूपांतरण एवं प्रकाशन पलक झपकते ही संभव नहीं होगा, वरन इस कार्य को एक ‘मिशन’ या अभियान के रूप में अंगीकार करके इस परम लक्ष्य को प्राप्त करना होगा।

हमारे देश में अनेक क्षेत्रीय और प्रादेशिक भाषाएं हैं जो विभिन्न प्रदेशों की सरकारी भाषाओँ के रूप में प्रचलित भी हैं और उन्हें शासकीय भाषा की मान्यता भी प्राप्त है। इनमें गुजराती, मराठी, बंगाली, मलयाली, तमिल, कन्नड़, असमिया आदि प्रमुख हैं। सबसे पहले हमें अपनी इन भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करके हिंदी को स्वीकार्यता देनी होगी उसके बाद ही इसे राजभाषा से राष्ट्रभाषा में परिवर्तित किया जा सकेगा।

बहरहाल, इस मुद्दे का समाधान असंभव भी नहीं है। इस दिशा में सरकार और प्रधानमंत्री के प्रयास सराहनीय रहे हैं। सभी जानते हैं कि बड़े से बड़ा लक्ष्य प्राप्त करने के लिए एक छोटे से कदम से प्रारंभ करना होता है। इसी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए हिंदी भाषा को वांछित स्थान पर विराजित करने के लिए भी संपूर्ण निष्ठा से कार्य करने की आवश्यकता है।
इशरत अली कादरी, खानूगांव, भोपाल</p>

सत्ता से परे

‘रुक जाना नहीं, तू कभी हार के, ओ राही…’। निश्चय ही भारत जोड़ो यात्रा ने और कुछ नहीं तो लाखों-करोड़ों हताश और निराश दिलों में एक नई उम्मीद जगाई है, असंख्य निस्तेज हो चुकी उनींदी आंखों को सपना दिया है, चल पाने में लाचार, चार कदम चलने के अनिच्छुक, ठहर गए पांवों को गति प्रदान की है। लेकिन क्या यह भरोसा अपने मूल पर भी टिका रह सकेगा? जो जनमानस इस यात्रा का मुसाफिर बन रहा है, क्या उसकी उम्मीद टिकी रह सकेगी? या एक बार फिर उसे अगली उम्मीद का इंतजार करना होगा?

हालांकि अगर हर दिशा से उमड़ रहे जनसमूह की विराटता को कसौटी मान लिया जाए, ‘नफरत छोड़ो’ के आह्वान पर दौड़े चले आने वालों के चेहरों की मुस्कानों को निहारा जाए और समर्थन की बहुरंगी भंगिमाओं को परखा जाए तो आपसी प्यार-मुहब्बत में व्यक्ति की आस्था को जगाने वाली यह एक अप्रत्याशित स्थिति है। इससे जनसामान्य में एक भरोसा अवश्य बना है कि कभी-कभी चालाकी और अहंकार से भरे लच्छेदार शब्दों के बजाय सीधे और सरल बोल जनमानस पर कहीं अधिक गहरा और सकारात्मक प्रभाव छोड़ते हैं।

मेरा विचार है कि विश्राम के छोटे-छोटे विरामों के साथ इस यात्रा को बरसों-बरसों तक इसी तरह जारी रहना चाहिए। सत्ता क्या चीज है, राजकाज कोई दूसरा संभाल लेगा! राहुल गांधी देश की जनता से विच्छिन्न होने और अपनी इस यात्रा को स्थायी विराम देने की बात न ही सोचें तो यह देशहित में होगा।
शोभना विज, पटियाला, पंजाब</p>