आजकल आधी रात सोचते हुए और बची आधी रात रोते हुए निकल जाती है। नींद की खुमारी चेहरे पर स्पष्ट नजर आती है। चेहरे पर झुर्रियां उगने लगी हैं, जिसकी वजह से समय से पहले बुढ़ापा दस्तक देता दिखने लगा है। अब समझ आता है कि हीर को रांझा से और मजनू को लैला से बिछड़ के कैसा लगा होगा। वे फैसले, जो हमारे लिए हों और हमसे पूछा भी न जाए, वे वास्तव में फैसले नहीं, मुकर्रर की गई सजाएं होती हैं।

हम बीसवीं सदी को पीछे छोड़ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और दुनिया तरक्की, स्वतंत्रता और महिला सशक्तिकरण का नारा लगाती है, जबकि भारतीय गांवों के मध्यवर्ग में सिर्फ लड़कियां ही नहीं, लड़कों के शादी के मामले में भी ऐसी ही सजा मुकर्रर होती है। जिसके परिणामस्वरूप उनके साथ-साथ प्रेमी-प्रेमिका को भी ताउम्र सजा भुगतते रहना पड़ता है। और फिर वही प्रेमी जोड़े, वही बंदिशें अपने बच्चों के ऊपर लाद देते हैं, जिसका दंश वे खुद झेल चुके होते हैं।

क्या एक जिंदगी और एक ठोकर सीख लेने के लिये काफी नहीं होता है? इंसान अपने वैवाहिक जीवन को कितना भी खुशहाल क्यों न बना ले, लेकिन बिछड़े हुए प्यार की कसक दिल से नहीं मिटा सकता। वह रह-रह कर पूरे जीवन टीस देता रहता है। जब कभी थोड़े वक्त के लिए भी खालीपन-सा महसूस होता है, दिल मतवाले हाथी की तरह मचल उठता है और अतीत रूपी सरोवर में यादों के कतरन रूपी कमल का मर्दन करने लग जाता है। मर्दन करते-करते जब उन्हीं यादों के दलदल में फस जाता है, तो निकलने के लिए तरह-तरह के उपाय ढूंढ़ता है और अंत मे निस्सहाय होकर दृग जल से यादों के कीचड़ को साफ करते हुए अपने किस्मत को कोसने लगता है। कुछ मामले में फैसले इंसान के हाथ में न होकर, वक्त के हाथ में होता है और वक्त का किया गया फैसला अमूमन कठोर होता है, जिसकी मार कई बार आजीवन महसूस की जाती है।
’विवेक सोनू,, मुखर्जी नगर, दिल्ली</p>

अनदेखी की राजनीति

हाल ही में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से बेरोजगारी दर के आंकड़े जारी किए गए हैं, जिसमें बताया गया है कि एक साल में शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर 2.4 फीसद बढ़ गई। पिछले साल अक्तूबर से दिसंबर में बेरोजगारी दर 10.3 फीसद रही थी, जबकि 2019 में इन्हीं तीन महीनों में बेरोजगारी दर 7.8 फीसद थी। इन आंकड़ों से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में रोजगार की कितनी भयावह स्थिति है। किसी भी देश में बढ़ती बेरोजगारी केवल वहां की आर्थिक गतिविधियों को ही प्रभावित नहीं करती, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक जीवन भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है।

आज बढ़ती बेरोजगारी के लिए केवल हम बढ़ती जनसंख्या और समसामयिक या महामारी को ही अकेले जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।
यह एक नई समस्या है और इसके लिए नोटबंदी और जीएसटी जैसे आर्थिक कदम भी जिम्मेदार हैं। इसके अलावा बढ़ती बेरोजगारी दर के लिए कुछ अन्य प्रमुख कारण हैं। उदाहरण के तौर पर ‘मेक इन इंडिया’ जैसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य का दावों के मुताबिक सफल न हो पाने की वजह से भारत से कई बड़ी कंपनियां पहले ही निकल चुकी हैं। इसके अलावा, हाल ही में कार निमार्ता कंपनी फोर्ड ने भी हाल ही में घोषणा की है कि वह भारत से अपना बोरिया-बिस्तर समेटेगा। साथ ही केंद्र और अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही इस क्षेत्र में कल्याणकारी योजनाओं का प्रभावकारी तरीके से लागू न हो पाना एक प्रमुख कारण है।

सरकारी विभागों में पड़े रिक्त पदों पर सरकारों द्वारा भर्तियां नहीं करने की बात केंद्र और राज्य, दोनों संदर्भ में लागू होती है। फिर कुशल श्रमिकों का अभाव हमारी दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति की वजह से आज भी एक बड़ी चुनौती है। लोगों द्वारा खेती छोड़ रोजगार के लिए दूसरे क्षेत्रों में पलायन करना भी एक अहम कारण है। हमारे देश में हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत है और इनमें रोजगार की सुरक्षा बेहद कम होती है, जिसके चलते भी बेरोजगारी बढ़ती है। सच यह है कि रोजगार का मुद्दा कभी भी भारतीय राजनीति में उतना ठोस मुद्दा नहीं बन पाया, जितनी उसे जरूरत थी। इसलिए यह समस्या आज भी कई बड़ी समस्याओं की जड़ बन रही है।
’सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र