भारतीय ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की कमियों पर सवाल उठना लाजिमी है कि इस अर्धशतकीय समयांतराल में बदला क्या सिर्फ सरकारें, कानून और नीतियां! फिर अब ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की टूटी रीढ़ को मजबूत करने के बजाय वर्तमान सरकार द्वारा नागरिकों को ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ देना किसी रोते बच्चे को झुनझुना देने सरीखी मालूम पड़ती है। विडंबना यह कि झारखंड, बिहार, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ जैसे दर्जन भर राज्य भी कुपोषण के पर्याय बन कर उभरे हैं।

सरकारी उदासीनता का आलम यह है कि आज इन सूबों के इक्का-दुक्का गांवों में ही मृदा और पेयजल की गुणवत्ता की नियमित रूप से जांच हो पाती है और न ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को संतुलित आहार नसीब होता है और न ही शुद्ध पेयजल की आपूर्ति होती है। सतही तौर पर लगता है कि लोगों में आवश्यक जानकारी और जागरूकता का अभाव है ऐसे में जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य और सुरक्षा की खबरें रेडियो और टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित विज्ञापनों तक ही सीमित न रहे, बल्कि इसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के माध्यम से अविकसित सुदूरवर्ती गांवों तक भी जमीनी स्तर पर पहुंचानी चाहिए।

सिक्के के दूसरे पहलू पर थोड़ा विचार करें तो हम पाएंगे कि सरकारी उदासीनता के साथ-साथ कुपोषण की भयावहता के पीछे हमारी कुत्सित मानसिकता भी कसूरवार है। अपनी आमदनी, हैसियत और परिस्थिति के अनुसार बच्चे पैदा कर बेहतर परवरिश देने की कोशिश की जाए, न कि भोजन की अनुपलब्धता में बच्चों को सड़क पर छोड़ दिया जाए। कुपोषण से मौत की खबरें देश के लिए शर्मनाक और कलंकित करने वाली हैं। लेकिन इससे मुक्ति का मार्ग भी हमें ही खोजना है। जब तक लोगों को जागरूक नहीं किया जाएगा, सुधार की गुंजाइश नहीं दिखती। सरकार भी अपने स्तर से सार्थक पहल करे और हम भी अपनी जिम्मेदारी समझें तो कुछ बात बने।

यह बात भी दबे मन से स्वीकार करनी होगी कि भारतीय ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था का स्तर सुधरने के बजाय दिनोंदिन पिछड़ता जा रहा है इसलिए सबसे पहले इसे दुरुस्त करने की जरूरत है। जरूरी यह है कि इसके खात्मे की दिशा में युद्ध स्तर पर काम हो। ताकि निर्दोष मासूमों की बलि किसी कीमत पर न चढ़ने पाए।
’सुधीर कुमार, बीएचयू, वाराणसी</strong>