हमारे देश में किसी भी तरह का आवेदन फार्म भरते समय एक कॉलम आता है जेंडर यानी लिंग का, जिसमें विकल्प होता है महिला, पुरुष और अन्य। इस अन्य की श्रेणी में आने वाले लोगों को आमतौर पर किन्नर कहा जाता है। इस कागजी फार्म में तो किन्नरों को ‘अन्य’ के रूप में जगह मिल गई है लेकिन समाज में उन्हें उनकी जगह अभी तक नहीं मिल पाई है। हम चाहे कितनी ही आधुनिकता, विचारों की स्वतंत्रता और दुनिया भर के विषयों पर बेबाकी से चर्चा करें मगर समाज आज भी किन्नरों के अधिकारों के प्रति मौन व्रत धारण किए हुए है। किन्नर हमारे समाज का वह हिस्सा हैं जो हमेशा हाशिये पर रहा है। उन्हें उपहास के पात्र या महज मनोरंजन के साधन रूप में देखा जाता है।
सच तो यह है कि हमारे समाज ने कभी किन्नरों को स्वीकारा ही नहीं है। कभी नहीं माना कि वे भी इंसान हैं, हमारे समाज का ही हिस्सा हैं। अधिकतर लोगों का मानना है कि किन्नर बेशर्म होते हैं, केवल गाना-बजाना और नाचना इनके काम हैं। ऐसी मानसिकता वाले लोगों के लिए जान लेना आवश्यक है कि यदि किन्नर जाति इस शोचनीय हालत में है तो इसके पीछे भी सबसे बड़ा दोषी हमारा समाज है। एक किन्नर जब घर में जन्म लेता है तो सर्वप्रथम माता-पिता, नाते-रिश्तेदार और समाज ही उसे नकार देते हैं यह भलीभांति जानते हुए भी कि इसमें उस मासूम की कोई गलती नहीं है। उसे अपने घर, परिवार, सपनों, ख्वाहिशों- सबसे दूर जबरदस्ती किन्नरों की टोली में भेज दिया जाता है बिना इसकी परवाह किए कि वह क्या चाहता है या उसकी भलाई किसमें है! एक किन्नर स्वयं को समाज के आगे बेबस, लाचार और मजबूर पाता है। इस समाज ने तो उस पर पहले से ही बंदिशें लगा दी हैं, उसे तो बस उन पर अमल करना होता है! एक किन्नर को समाज में सम्मानपूर्वक जिंदगी जीने के लिए कितनी मुश्किलों से जूझना पड़ता है हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
आखिर हमारा समाज किन्नरों को लेकर इतना शर्मिंदा और संकोची क्यों है? उनके प्रति उसकी मानसिकता इतनी संकीर्ण और संवेदनहीन क्यों है? क्यों उन्हें हमेशा हिकारत की नजरों से देखा गया है? असल में यह हमारे समाज को संवेदना के स्तर पर खोखला साबित करने के लिए काफी है कि हम अपने एक हिस्से को स्वीकार ही नहीं कर पाए हैं। किन्नरों की यह शोचनीय स्थिति आधुनिकता, समानता और मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता का दंभ भरने वाले समाज के मुंह पर जोरदार तमाचा है।
बहरहाल, तमाम अवरोधों के बाद भी बहुत से किन्नरों ने समाज की जंजीरों को तोड़ कर न सिर्फ अपने सपने पूरे किए बल्कि अपने घर-परिवार और देश का नाम भी रोशन किया है। इन्हें समाज में दया की नहीं है बल्कि सम्मान की जरूरत है।
गुलअफ्शा, आंबेडकर कॉलेज, नई दिल्ली</strong>
सबके राम: राम और रामराज्य ऐसे शब्द हैं जो भारतीय लोकपरंपरा में इतने रच-बस गए हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है। कल्पना मात्र से मन-मस्तिष्क में ये शब्द सामाजिक और राज्य व्यवस्था की ऐसी अवधारणा का रूप लेने लगते हैं जो समदर्शी और न्यायपरक है, जिसमें सभी लोग अत्यंत प्रसन्न और सुखी हैं, जहां सभी जगह लोक कल्याण, सामाजिक समरसता हो, परस्पर सद््भाव हो, सर्वत्र लोकमंगल की बातें हों।
राम हर जगह अन्याय के विरुद्ध, हर कमजोर के पक्ष में संघर्ष करते दिखते हैं। उन्हें एक जगह मंदिर में बांध कर नहीं रखा जा सकता, वे एक ‘विचार’ हैं। इसमें अगर कोई अपनी सत्ता की अक्षुणता के लिए राम को धर्म से जोड़ कर सामाजिक विग्रह पैदा करता है तो वह सही नहीं है क्योंकि कहा गया है सबके राम, घट-घट में राम।
निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद
अंग्रेजी बनाम हिंदी: किसी लकीर को छोटा करने के दो तरीके होते हैं। पहला, उससे बड़ी लकीर खींची जाए और दूसरा, उस लकीर को थोड़ा-सा मिटा दिया जाए। इसी तरह किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से ज्यादा प्रसिद्ध होने के भी दो तरीके होते हैं। एक, उससे ज्यादा अच्छे काम और मेहनत करके खुद प्रसिद्धि अर्जित की जाए। दूसरा, उस व्यक्ति की गलतियों को सबके सामने लाकर उसके अच्छे कामों को नकार दिया जाए और सबकी नजरों में गिरा दिया जाए।
आजकल हिंदी और अंग्रेजी की जंग में यही हो रहा है। हिंदी का झंडा बुलंद करने वाले पहला रास्ता अपनाने के बजाय दूसरे रास्ते पर निकल जाते हैं। इन्हें हिंदी को समृद्ध नहीं करना क्योंकि वह काम इनके बस का नहीं है। ये चाहते हैं कि किसी तरह अंग्रेजी सबकी नजरों में गिर जाए, इससे हिंदी खुद-ब-खुद ऊपर उठ जाएगी! इसीलिए लगे पड़े हैं अंग्रेजी का विरोध करने में। अगर हम अपनी भाषा को विकसित करेंगे तो कोई उसे पछाड़ नहीं सकता। इसलिए दूसरी भाषा को हीन भावना से देखने और नकारने के बजाय हम अपनी ऊर्जा और ध्यान हिंदी के उत्थान पर लगाएं तो बेहतर होगा।
सुकांत तिवारी, नई दिल्ली
इसरो की उपलब्धि: पिछले कुछ सालों में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अंतरिक्ष में अपनी सफलताओं के कारण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अत्यधिक ख्याति अर्जित की है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के मार्गदर्शन में उसने भारत का पहला स्वदेशी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल एसएलवी-3 विकसित किया था। उसके बाद भी सफलताओं का सिलसिला जारी रहा। सबसे सस्ता और सफल मंगल अभियान इसरो की ऐसी उपलब्धि थी। इस पर बधाई देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे हॉलीवुड फिल्म ‘ग्रेवेटी’ के खर्चे से भी कम का बताया था। इसरो पीएसएलवी के जरिए एक साथ 104 सैटेलाइट का सफल प्रक्षेपण करने का विश्व रिकार्ड भी बना चुका है। उसने 28 अप्रैल 2016 को भारत का सातवां नेविगेशन उपग्रह (इंडियन रीजनल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम) लॉन्च किया। इससे पहले अमेरिका और रूस ने ही यह उपलब्धि हासिल की थी।
अब 14 नवंबर 18 को इसरो ने विश्व पटल एक नया अध्याय लिख दिया। जीएसएलवी मार्क 3डी 2 रॉकेट ने बुधवार शाम 5 बजकर 8 मिनट पर 3423 किलोग्राम जीसैट-29 सैटेलाइट लेकर उड़ान भरी और 17 मिनट बाद उसे निश्चित कक्षा में स्थापित कर दिया। जीएसएलवी मार्क 3डी 2 को उसकी ताकतवर क्षमता की वजह से ‘बाहुबली’ कहा जाता है। इसी के साथ भारत ने अंतरिक्ष की दुनिया में निकट भविष्य के अपने सबसे बड़े लक्ष्य ‘गगनयान’ का एक अहम पड़ाव पूरा कर लिया। इसके सफल प्रक्षेपण से भविष्य में अत्याधुनिक उपग्रह छोड़ने में भी मदद मिलेगी।
सुनील कुमार सिंह, मेरठ, उत्तर प्रदेश</strong>
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