भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए सरकार लगातार प्रयास कर रही है। भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत कालाधन है। भ्रष्ट आचरण करने वालों के पास आय से अधिक संपत्ति मौजूद होने के प्रमाण समय-समय पर मिलते हैं। परंतु जब ऐसे मामलों की जांच की जाती है तब वेतन की आय से अधिक संपत्ति धारक व्यक्ति अतिरिक्त संपति को कृषि आय से प्राप्त हुआ बता कर कानूनी कार्यवाही से साफ बच निकलता है। इसका सबसे बड़ा कारण कृषि आय का कर मुक्त होना है। लोग अपने काले धन को सफेद करने के लिए कृषि आय के टैग का सहारा लेते हैं। भ्रष्टाचार के जरिए कमाए गए धन से खुद और रिश्तेदारों के नाम खेत खरीदे जाते हैं, पुश्तैनी खेतों की पैदावार को बढ़ा-चढ़ा कर दस्तावेजों में कालेधन को समायोजित किया जाता है। कभी-कभी तो बंजर पड़ी पुश्तैनी जमीनों पर भी भारी उपज होना दिखाया जाता है, ताकि काले धन को सफेद दिखाया जा सके।
भ्रष्टाचार से कमाए गए धन को खपाने का श्रेष्ठ विकल्प खेतों की खरीदी के रूप में देखा जा रहा है। यही कारण है कि कुछ मुठ्ठी भर नव धनाढ्यों, भ्रष्ट अधिकारियों, आयकर चुराने वाले व्यापारियों, सफेदपोशों और उनके रिश्तेदारों के नाम बड़ी-बड़ी जोत वाले सैकड़ों एकड़ खेत दर्ज हैं, जहां आम भूमिहीन गरीब कृषक बेहद नीची दर पर मजदूर के रूप में कृषि कार्य करते पाया जाता है। एक आंकड़े के अनुसार कुछ वर्ष पहले तक भारत में कृषि जोतों का औसत आकार 1.16 हेक्टेयर था। देश में सड़सठ फीसद सीमांत और छोटे किसान हैं और उनके पास कृषि का केवल उनतीस फीसद रकबा है। आंकड़ों से साफ है कि करीब इकहत्तर फीसद बड़ी जोत वाली जमीनें और खेत साधन सम्पन्न लोगों के पास ही है। ऐसे में भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए कृषि आय पर कर लगाना वर्तमान परिदृश्य में पूरी तरह प्रासंगिक हो जाता है। नए कृषकों की आर्थिक पृष्ठभूमि की जांच की जानी चाहिए, ताकि काले धन को खपाने का सिलसिला रोका जा सके।
ऋषभ देव पांडेय, सूरजपुर, छत्तीसगढ़
नोटबंदी की मार: नोटबंदी के दो साल पूरे होने के बाद भी जनता और कारोबारी इसकी मार से उबर नहीं पाए हैं। नोटबंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था पर जो प्रभाव पड़ा, वह अभी तक बरकरार है। ग्रामीण और छोटे शहरों के व्यापारी, जिनका व्यापार अधिकतम नगर पैमाने पर ही निर्भर था, वे गंभीर संकटों से जूझ रहे हैं। सबसे बुरा असर तो यह हुआ है कि नोटबंदी के बाद से बड़ी संख्या में कुटीर और लघु उद्योग बंद हो गए। नोटबंदी के पहले से ही देश बेरोजगारी की मार झेल रहा था। नोटबंदी के बाद इस संख्या में वृद्धि हो गए जो अभी तक बरकरार है। इसके अलावा नोटबंदी की पूरी प्रक्रिया भी सरकार को काफी महंगी पड़ी। इस दौरान नए नोटों की छपाई पर भारी-भरकम खर्चा आया। काला धन रोकने और डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के सरकार के वादे नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक द्वारा जारी आकड़ों से झूठे साबित हुए।
कोई और विकल्प न होने की वजह से नोटबंदी के बाद डिजिटल भुगतान में बढ़ोतरी देखने को तो मिली, लेकिन धीरे-धीरे वह भी काफी ठंडी पड़ गई। आज दो साल बाद भी जिस तरह से बीच-बीच में बाजार में नकदी की किल्लत देखने को मिल रही है,वह उसी का नतीजा है। अभी भी देश के बहुत से एटीएम नए नोटों की निकासी के लिए अपडेट हुए ही नहीं हैं। ग्रामीण और कृषि जैसे क्षेत्र का तो पूरा कारोबार ही नकदी लेनदेन पर निर्भर रहता है, वहां अभी नोटबंदी का असर बरकरार है। नोटबंदी की वजह से देश की जीडीपी की रफ्तार जिस तरह से धीमी पड़ी, वही अभी तक बनी हुई है।
शुभम शर्मा, गोरखपुर
प्रदूषण के परिवहन: आज सरकार को बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए एक नजर सार्वजनिक यातायात व्यवस्था और वाहनों पर भी डालनी चाहिए। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्यों आज लोग सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल नहीं करते हुए निजी वाहनों का उपयोग करने को प्राथमिकता देते हैं? क्या सार्वजनिक वाहनों का खर्च जनता के दुपहिया वाहन के खर्च के लागत के समान है, या नागरिकों को सरकार पूर्ण सुरक्षा नहीं दे पा रही है? क्या मूलभूत सुख-सुविधाएं आम नागरिकों से परे हैं, या बढ़ती जनसंख्या और संसाधनों की कमी है? या सरकार जनता की मांग पूर्ति करने के लिए सक्षम नहीं है?
दरअसल आज के युग मे बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधन इसकी मुख्य कारण हैं। आज लोगों को सार्वजनिक वाहनों में यात्रा के दौरान भीड़-भाड़, धक्का-मुक्की, जेबकतरों के खौफ, समय और अन्य समस्याओं से जूझने को मजबूर होना पड़ता है। इसीलिए लोग अपने निजी वाहनों के उपयोग को प्राथमिकता देते हैं। और तो और आज मध्यम वर्ग के लोगों को भी सार्वजनिक यातायात से कम निवेश में आने वाले दुपहिया वाहनों ने भी दूर कर दिया है। जिसका मुख्य कारण उन दुपहिया वाहनों का खर्च लगभग उतना ही आता है जितना कि सार्वजनिक वाहनों का।
सरकार को चाहिए कि वह सार्वजनिक वाहनों में वृद्धि करने के साथ-साथ मूलभूत सुविधाओं में भी वृद्धि करे और यातायात के किराए को कम करना चाहिए। तभी सार्वजनिक परविहन का ज्यादा उपयोग किया जा सकेगा और यह प्रदूषण कम करने की दिशा में बड़ी पहल होगी।
शशांक वार्ष्णेय, दिल्ली विश्वविद्यालय
देश के लिए: भारत को पहले मुगलों ने लूटा, फिर अंग्रेजों ने और अब अपने ही लोग देश को लूट कर कालेधन को विदेशी बैंक में जमा करके देश को खोखला कर रहे हैं। जिस देश में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर हो, जहां लगभग हर कोई अपना कर सरकारी खजाने में जमा कराने से कतराता हो, जहां वोट बैंक की खातिर मुफ्त सुविधाओं के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपए बर्बाद कर दिए जाते हों, वहां विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। आज भी ऐसे लाखों परिवार हैं जो समृद्ध होने के बाबजूद सरकार की मुफ्त योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। 1951-52 में जब पंचवर्षीय योजना को हरी झंडी दी गई थी, तब आचार्य विनोवा भावे ने कहा था कि सरकार की सभी राष्ट्रीय योजनाओं का मकसद रोजगार बढ़ना भी होना चाहिए। बेरोजगारी से निपटने के लिए सरकार को योजनाएं ही नहीं, बल्कि उनको अमल मे लाने के लिए भी गंभीरता दिखानी चाहिए। सरकार को ऐसी कोई योजना या नीति बनाने से परहेज करना चाहिए, जिससे किसी भी उद्योग-धंधे पर नकारात्मक असर पड़ता हो।
’राजेश कुमार चौहान, जालंधर
———–
किसी भी मुद्दे या लेख पर अपनी राय हमें भेजें। हमारा पता है : ए-8, सेक्टर-7, नोएडा 201301, जिला : गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश<br />आप चाहें तो अपनी बात ईमेल के जरिए भी हम तक पहुंचा सकते हैं। आइडी है : chaupal.jansatta@expressindia.com