‘मेरा बस्ता कितना भारी /बोझ उठाना है लाचारी /कंप्यूटर का युग अब आया /इसमें सारा ज्ञान समाया /मोटी पोथी सभी हटा दो, बस्ते का अब भार घटा दो।’ इस कविता में बस्ते के बोझ तले दबे बच्चों के जिस दर्द को बयां किया गया है वह लगभग देश के हर स्कूल जाने वाले बच्चे का दर्द है। यशपाल समिति की पहली सिफारिश थी कि बच्चों को निजी सफलता वाली प्रतियोगिताओं से दूर रखा जाए क्योंकि ये आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा हैं। अब जाकर इस सिलसिले में बस्ते का बढ़ता बोझ कम करने संबंधी मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से जारी दिशा-निर्देश प्राथमिक शिक्षा में सुधार की ओर प्रशंसनीय कदम है।
बस्ते का बोझ एक गंभीर समस्या है। स्कूली बस्ते का वजन बच्चे के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर बुरा असर डाल रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूल बैग का औसत वजन आठ किलो होता है। सर्वे में कहा गया है कि बच्चे अपने वजन का 35 प्रतिशत बोझ बस्ते के रूप में रोजाना पीठ पर ढोते हैं जिसके कारण उन्हें कम उम्र में ही पीठ दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसका असर उनकी हड्डियों और शारीरिक विकास पर भी पड़ सकता है।
उपभोक्तावादी संस्कृति के युग में शिक्षा भी एक व्यवसाय में तब्दील हो गई है। पहले जहां शिक्षा को महादान की श्रेणी में रखा जाता था आज वह एक बहुत बड़े उद्योग का स्थान ले चुकी है। ऐसे में स्वाभाविक है कि व्यवसायी अपने निजी स्वार्थ के लिए बच्चों की मासूमियत को दरकिनार कर उन्हें महज एक उपभोक्ता के रूप में देखने लगता है और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रंग-बिरंगी मोटी-मोटी किताबों, डिजाइनर पैन,पैंसिल, रबड़, कापी, लंच बॉक्स, पानी की बोतल जैसी अनेक अनावश्यक वस्तुओं के जरिए बच्चों के बस्ते का भार बढ़ाया जाता है। बचपन से ही उच्च अंक प्राप्त करने की गलाकाट प्रतियोगिता के साथ भौतिक वस्तुओं के संग्रह और श्रेष्ठ प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा को जाने-अनजाने बच्चों के मन की भीतरी परतों में बैठा दिया जाता है।
बाद में यही विकार उन्हें अपने घर-परिवार और समाज में प्रदर्शन के लिए उकसाता है। युवाओं में बढ़ती प्रदर्शनकारी प्रवृत्ति के लिए जितना जिम्मेदार आज का मीडिया है उतने ही जिम्मेदार हमारे प्राइवेट स्कूल भी हैं। इनमें शिक्षा की गुणवत्ता और नैतिक शिक्षा के स्थान पर बच्चों को अन्य टीमटाम के लिए उकसाया जाता है जिसकी वजह से निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे हीन भावना के शिकार होते हैं। इससे उनका स्वस्थ विकास अवरुद्ध होता है। इसलिए प्राथमिक कक्षाओं में अनावश्यक पुस्तकों और प्रदर्शनकारी वस्तुओं पर लगाम लगाने की जरूरत है।
विभा ठाकुर, रोहिणी, दिल्ली</strong>
यमुना मैली: इन दिनों दिल्ली में यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि उसे छूना भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पानी में अमोनिया की मात्रा शून्य होनी चाहिए पर यह 1.12 (पीपीएम) तक पहुंच गई है। यमुना की स्वच्छता को लेकर राष्ट्रीय हरित अभिकरण (एनजीटी) से लेकर दिल्ली की अदालतें कई बार आदेश जारी कर चुकी हैं। इन आदेशों का तब तक कोई फायदा नहीं होगा जब तक जनता यमुना की स्वच्छता को लेकर जागरूक नहीं होगी। जीवनदायिनी यमुना दम तोड़ रही है। करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी यमुना स्वच्छ नहीं हो पाई है। इसका एकमात्र कारण यही है कि लोग नियमों का पालन नहीं करते और अपने कर्तव्यों को लेकर जाग्रत नहीं हैं।
मनीषा चौरसिया, दिल्ली
जनहित का तकाजा: केंद्र और राज्य सरकार की लड़ाई में दिल्ली के हाल बेहाल हैं। कभी सफाई कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया जाता जिसके कारण उनके हड़ताल पर जाने से दिल्ली में जगह-जगह कूड़े के ढेर लग जाते हैं। केंद्र सरकार कहती है कि यह उसकी जिम्मेदारी नहीं है और दिल्ली सरकार भी इससे मुंह फेरती दिखाई देती है। आखिरकार अदालत को इन दोनों सरकारों की रस्साकशी में पिस रही जनता के लिए फैसला सुनाना पड़ता है। ऐसा एक बार नहीं, पिछले तीन-चार सालों से बार-बार हो रहा है।
आयुष्मान योजना को भी दिल्ली में लागू करने से राज्य सरकार ने मना कर दिया। नतीजतन, दिल्ली के कितने ही गरीब परिवार इस योजना के लाभ से वंचित रह गए हैं। दोनों सरकारों की तनातनी में जनता के हितों की ओर कोई ध्यान देने को तैयार नहीं है। क्या यह सजा दिल्लीवासियों को सिर्फ इसलिए मिल रही है कि उन्होंने अलग-अलग पार्टियों की सरकारों को चुना है! आखिर कब हमारे देश की सरकारें जनता के हित में सोचना शुरू करेंगी?
सौरभ शुक्ला, नई दिल्ली</strong>
बच्चों की जगह: सत्ताईस नवंबर के अंक में ‘उपेक्षा के शिकार बच्चे’ लेख पढ़ा। यह वाकई बहुत दुखद है कि हमारे यहां बच्चों के लिए कोई जगह ही नहीं है। पिछले एक दशक से बच्चों के साथ काम करते हुए मैं इस बात को थोड़ा और गहराई से जान पाई क्योंकि हमारे समाज में बच्चे को बच्चा (नासमझ) ही मानते हैं। यानी उनकी अपनी कोई समझ नहीं है, अपना कोई ज्ञान नहीं है। वे तो बड़े जो बोलेंगे वही करेंगे। हम अपने घरों में भी देखें तो बच्चों के लिए कोई जगह नहीं होती है। बड़े भी अक्सर अपने दफ्तर आदि का गुस्सा बच्चों पर उतारते नजर आते हैं क्योंकि वे किसी बात का विरोध नहीं करते हैं। आजकल बच्चों के साथ दिन-प्रतिदिन अपराध की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह बात लड़का और लड़की दोनों के लिए समान रूप से लागू होती है।
चुनावी समय में पार्टियों ने कई तरह के मुद््दों को अपने एजेंडे में रखा मगर बच्चों के बारे में तो दूर-दूर तक कोई जिक्र ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह इस बार ही हुआ है, हर बार यही होता है। ‘बच्चे देश का भविष्य हैं’- यह बोलते रहने के बावजूद हम उनके लिए कुछ नहीं करते। बच्चे स्कूल में ठहरें इसके लिए सरकार कई तरह की योजनाएं संचालित करती है मगर फिर भी हम अपने राज्य के अपने जिले के सभी बच्चों को स्कूल में नहीं रोक पाए। क्यों नहीं रोक पाए यह एक बड़े जन समुदाय की चिंता बननी चाहिए।
प्रेरणा, भोपाल
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