आप और हम आपाधापी के चरण दौर में जी रहे हैं। जीने के मकसद का कहीं कोई पता नहीं है, लेकिन जिए जा रहे हैं। एक अंतहीन दौड़ का सिलसिला निरंतर गति पकड़ रहा है। हर कोई एक दूसरे से आगे जाना चाहता है। इसके लिए चाहे किसी अन्य को धक्का देकर अपने लिए जगह बनाना हो या सबको पीछे छोड़ना हो। दरअसल, इसे ही बहादुरी का प्रतीक समझ लिया गया है। जमाने में एक अजीब-सी भागदौड़ चल रही है। अनेक उदाहरण ऐसे भी मिलते हैं कि काम कौड़ी का नहीं, और फुर्सत घड़ी की नहीं। भागदौड़ केवल अर्थोपार्जन की ही नहीं होती, कुछ भागदौड़ ऐसी भी होती है कि बात का बतंगड़ बना कर अर्थ का अनर्थ कर दिया करती है। सामान्य गृहस्थ की भागदौड़ परिवार के सुव्यवस्थित पालन-पोषण के प्रति समर्पित रहा करती है।

लेकिन जहां तक राजनीति की बात है, तो इसकी भागदौड़ सत्ता प्राप्ति की प्रबल लालसा को तृप्त करने की होती है। जो सत्ता से झिटक दिए जाते हैं, वे सत्ता को अस्थिर करने के लिए भागदौड़ किया करते हैं। मीडियाकर्मी खबरों के लिए भागदौड़ करते हैं तो समाज सुधारक जन-जन के उद्धार के लिए भागदौड़ करते हैं। गृहिणी घर का संचालन करने के लिए भागदौड़ करती है, तो बच्चे होमवर्क को समयबद्ध तरीके से पूरा करने के लिए भागदौड़ किया करते हैं। जो जहां है वहां भागदौड़ कर रहा है। जो भागदौड़ नहीं करते, संन्यासी जीवन जीते हैं। इसलिए उनकी भागदौड़ परम सत्ता को प्राप्त करने के प्रति समर्पित होती है। कुल मिला कर हम सब भागदौड़ ही तो कर रहे हैं।

आमतौर पर संन्यासी जीवन को वैराग्यमय माना जाता है, लेकिन यह वर्ग भी अपने जीवन के उद्धार के लिए भागदौड़ ही तो करते हैं। भागदौड़ के लिए दौड़ना ही जरूरी नहीं होता। भागदौड़ के एक मायने यह भी है कि आप एक ही स्थान पर बैठे हैं और मन संसार मे कहीं खोया हुआ है। यानी कि मन की हलचल जारी है। मुद्दे की बात यह कि भागदौड़ ही जीवन है, क्योंकि जो जी रहा है, वही तो भागदौड़ कर सकता है। हम अपनी भागदौड़ से विमुख नहीं हो सकते, लेकिन यह हमारी इच्छाशक्ति पर है कि कब हम भागदौड़ से मुक्त होते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि जो भागदौड़ नहीं करते, वे मृतक समान होते हैं। आमतौर पर यथास्थितिवादी भागदौड़ करते तो हैं लेकिन बहुत कम। इनकी भागदौड़ एक बंधी बंधाई लीक पर चला करती है, जिनका आत्म स्वभाव क्रांतिकारी होता है। यकीन मानिए वे इतिहास बदल देते हैं।

जो यंत्रवत जीवन जीते हैं, वे समय की धारा के प्रवाह में की जाने वाली भागदौड़ को अपनी नियति मान बैठते हैं। आप मानें या न मानें, कुछ ऐसे भी होते हैं जो स्वार्थसिद्धि की प्रक्रिया को परमार्थ के नाम से सुशोभित कर दिया करते हैं। सही मायने में यह विलक्षण कलाकार होते हैं। यह स्वाभाविक है कि इनकी कलाकारी राजनीति का पुट लिए हुए होती है। लोकतंत्र की बगिया में सत्ता के खिलते फूलों के ये जाहिर तौर पर रखवाले होते हैं। लेकिन वास्तव में ये उन फूलों को खा जाने वाले होते हैं। हालांकि अपवादस्वरूप कुछ हो सकते है, जो किसी भी प्रकार की भागदौड़ से निर्लिप्त रहते हैं। बावजूद इसके इनका वजूद ही दूसरों को भागदौड़ करने के लिए विवश कर देता है। ऐसे में भागदौड़ करने वाला कठपुतली हो जाता है और यह वर्ग उन्हें अपनी अंगुलियों पर नचाते रहता है।

’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, मप्र