देखते ही देखते निरंतर विकृत होती जा रही राजनीति के दौर में राजनीतिक सक्रियता स्वार्थसिद्धि की पर्याय बन गई है। राजनीति में अनगिनत अंशकालिक और पूर्णकालिक राजनीतिक हैं। अंशकालिक राजनीति का दौर छोटे-बड़े चुनाव में नजर आता है। निश्चित है कि इनके मन में भी समाज सेवा का जज्बा होता है और रिक्त समय में वे समाज कल्याण की ओर रुख कर सकते हैं। वैसे ही पूर्णकालिक राजनीतिक जीवनपर्यंत जनसेवा का लक्ष्य लेकर समर्पित भूमिका का निर्वहन करता है। माना जा सकता है कि सत्ता जनहित का सशक्त माध्यम है, लेकिन क्या बिना सत्ता के सामाजिक बदलाव का मार्ग प्रशस्त नहीं किया जा सकता?
समाज की दशा-दिशा में निरंतर सुधार की आवश्यकता है। आज भी विभिन्न कुरीतियों और अंधविश्वासों के चलते नागरिकों की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दुर्गति हो रही है। विकास की मुख्यधारा में समाज के सभी वर्गों की भागीदारी नहीं दिखती। विकसित, और अधिक विकसित हो रहे हैं और पिछड़े, और अधिक पिछड़ रहे हैं। एक प्रकार का सामाजिक असंतुलन लगभग हर समाज में व्याप्त है। राजनीति में धर्म और धर्म में राजनीति का घालमेल दोनों ही क्षेत्रों की मर्यादा पर दाग लगा रहा है। एक अजीब-सा वातावरण सामाजिक परिवेश में दिखाई देता है। सामाजिक विकृतियों का निदान और समाज उत्थान के लिए राजनीतिकों की ऊर्जा और चेतना चमत्कारिक परिणाम दे सकती है। यों भी समाज सुधार के लिए नेतृत्व करने की कुशलता आवश्यक होती है।
समाज सुधार के लिए नेतृत्व को अनुयायियों की आवश्यकता होती है और राजनीतिक नेतृत्व के पास कार्यकर्ताओं का एक बड़ा समूह भी होता है। अगर राजनीतिक ऊर्जा और चेतना का प्रवाह समाज कल्याण की दिशा में मोड़ दिया जाए, तो देश-प्रदेश तरक्की की दिशा में विद्युत गति से आगे बढ़ सकता है। लेकिन इसके लिए राजनीतिकों को बदलना होगा और सत्ता के प्रति आसक्ति भाव का त्याग करना होगा।
बेशक यह सब इतना आसान नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं किसी न किसी राजनीतिक के अंत:करण की चेतना जागृत हो जाए, तो यह सिलसिला गति पकड़ सकता है। यह निश्चित है कि जब राजनीतिक ऊर्जा समाज कल्याण की दिशा में प्रवाहित होगी, तब प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से इसका राजनीतिक लाभ नेतृत्व को प्राप्त हो सकता है।
जरूरत इस बात की है कि संपूर्ण एकाग्रचित्त अवस्था में पूर्ण निष्ठा के साथ समाज कल्याण की भावना को सत्ताविहीन स्थिति में भी मूर्त रूप दिया जाए। हमें आशा करनी चाहिए कि आज नहीं तो कल, लेकिन कभी ऐसा कल भी आएगा कि राजनीतिक सफलता का पैमाना समाज कल्याण की दिशा में किए गए कार्यों पर निर्भर करेगा। अफसोस है कि इस समय देश प्रदेश की राजनीति में सत्ता को ही साध्य समझ लिया गया है। राजनीतिकों के आचरण और व्यवहार में विरोधाभास नजर आता है। इस स्थिति को बदले जाने की नितांत आवश्यकता है।
राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास, मप्र