सभी जानते है कि किसी भी देश की तरक्की उसकी उन्नति में युवाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वह तब और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जब देश कठिन स्थिति से गुजर रहा हो। बावजूद इसके युवाओं को नजरअंदाज किया जाता रहा है। विगत कई दिनों से अस्पतालों में मरीजों की जान बचा रहे संविदा कर्मचारियों ने अपनी मांगों को लेकर सरकार से आस लगाई की कि उन्हें नियमित करे। यह अकेला विभाग नहीं।
शिक्षा विभाग, बिजली विभाग और अन्य विभागों के भी छोटे कर्मचारी कई सालों से सरकार के सामने गिड़गिड़ा रहे है, लेकिन सरकार पर कोई असर नहीं होता। या सरकार उनकी मांगें मानना नहीं चाहती। यह समझ से परे है। सवाल है कि जिंदगी को जोखिम में डाल कर कोई व्यक्ति कितने दिनों तक नौकरी कर सकता है। और अगर कोई युवा मजबूरी में ऐसा कर भी रहा है तो एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में यह कितना उचित है और मानवाधिकारों के लिहाज से कितना सही है।
’पूनम चंद सिर्वी, कुक्षी, धार, मप्र
मदद का दायरा
महामारी की इस त्रासदी में अपने परिजनों को खोकर लोग शोक संतप्त हैं। घरों की हलचल एकदम खत्म-सी हो गई है। कई परिवारों पर तो ऐसा वज्रपात हुआ है कि उन्हें इस सदमे से उबरने में काफी लंबा समय लगेगा। अपने परिजनों का इलाज करा कर कई परिवार आर्थिक रूप से बिल्कुल खत्म से हो गए हैं। लोग बड़ी राशि खर्च करने के बावजूद अपने परिजन को नहीं बचा सके। ऐसे में लोग दोहरे सदमे में हैं। ऐसे में कहा जाए कि लोगों की पारिवारिक स्थिति सड़क पर आने जैसी हो गई है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
संकट की इस घड़ी में समाजसेवी संस्थाएं और सेवाभावी लोग आगे आएं और पीड़ितों की मदद करें, ताकि ऐसे लोग कुछ संभल सकें। आज के हालात में ऐसे लोगों को आर्थिक मदद की बड़ी जरूरत है। हालांकि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह मदद को एक व्यवस्थागत शक्ल दे, क्योंकि आखिर यह समूची त्रासदी सरकार की नाकामी का भी नतीजा है।
’अमृतलाल मारू ‘रवि’, दसई, मप्र