अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते राजनेताओं के शब्दकोश में तरह-तरह के तीर होते हैं। जब तक मीडिया सक्रिय है, तब तक उनके तरकश में तीरों की कमी नहीं होती। सही समय पर सही तीर, उनकी तकदीर बदल सकता है, इस तथ्य को वे भली-भांति जानते हैं। चुनावी दौर में वे तीर को कमान पर चढ़ाए रहते हैं। कभी-कभी आपत्तिजनक तीर भी बहुत ऊंचा असर छोड़ते हैं। उच्चस्तरीय राजनीतिकों की निम्नस्तरीय शब्दावली में एक गहरा रहस्य छिपा हुआ है। इसके मायने यह हैं कि जब बड़े नेता द्वारा छोटे स्तर का बयान दिया जाता है, तब टीआरपी जैसी उनकी पहुंच बहुत ऊंचाई प्राप्त कर लेती है। राजनीति में लोकप्रियता प्राप्त करने की दृष्टि से यह एक नायाब नुस्खा है। वैसे भी विशाल जनसमूह में अपनी अलग छवि स्थापित करना बहुत जरूरी होता है।

यही कारण है कि धीर-गंभीर स्वभाव के जिम्मेदार राजनीतिकों द्वारा भी गैरजिम्मेदार व्यक्तित्व का परिचय दे दिया जाता है। इससे होता यह है समाज के निचले स्तर तक उनकी ऊंची-ऊंची बातों को बहुत ही सरलता के साथ समझ लिया जाता है। हमारे लोकतंत्र में राजनीति का गणित कुछ अलग ही है। चूंकि समाज में सभी वर्ग के नागरिक रहते हैं इसलिए हर एक तक संवाद बनाना भी एक राजनीतिक विवशता ही होती है। कभी-कभी शब्दों के अर्थ भी अनर्थ का कारण बन जाया करते हैं। इस अनर्थ का भी कोई अर्थ निकलता है। देश प्रदेश की राजनीति में ऐसे भी रणबांकुरे हैं, जिनके वक्तव्यों की नागरिकों को बेसब्री से प्रतीक्षा रहती है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि असंसदीय आचरण और व्यवहार को जब मूर्त रूप दिया जाता है तब वर्ग विशेष पर इसका बहुत ही सकारात्मक असर होता है। राजनीति में समर्थकों तथा कार्यकर्ताओं के उत्साह में वृद्धि करना भी जरूरी है, लिहाजा उन्माद में भी वक्तव्य दिया जाता है। यह अलग बात है कि ज्यादा विवाद होने पर अपने कथन को वापस भी ले लिया जाता है। इससे होता यह है कि शब्दों का तीर निशाने पर निशाना साध कर वापस तरकश में समा जाता है।

दरअसल, राजनीति के खेल बड़े ही निराले हुआ करते थे, इसलिए हम हैं। कुछ ऐसा भी कहा जाता है, जो नहीं होता है। कभी-कभार उगले गए शब्दों से बवाल मच जाने पर खेद प्रकट कर दिया जाता है। इससे बात रफा-दफा हो जाती है। जब कभी खेद प्रकट करने से भी बवाल नहीं थमे, तब क्षमा मांग ली जाती है।
बात कुछ ज्यादा बिगड़ जाए तो लिखित में क्षमा याचना कर दी जाती है। बस, इसके आगे तो किसी सवाल का सवाल ही नहीं उठता।

राजनीति के खेल निराले हुआ करते हैं। कहने वाला जानता है कि वह गलत कह रहा है, लेकिन बात को वह सही निशाने पर लाकर सामने वाले का काम तो तमाम कर देता है। इन दिनों राजनीति के इस टोटके का बहुत उपयोग किया जा रहा है। कुछ राजनीतिक शब्दों के जादूगर हुआ करते हैं। तीखी से तीखी बात को शहद में लपेट कर ऐसा प्रहार करते हैं कि सामने वाला तार-तार हो जाता है। यही हमारे लोकतंत्र की मूलभूत विशेषता है। ऐसी होड़ में नागरिकों को राजनीतिक मनोरंजन की सामग्री मीडिया से मिल जाती है। लेकिन सच यह है कि समाज के विचार और व्यवहार का स्तर निम्न होता चला जाता है, क्योंकि उच्च स्तर के राजनीतिकों की भाषा समाज के लिए प्रशिक्षण का काम भी करती है।
’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास मप्र