एक शिष्य ने गुरु से पूछा- ‘एक जीवित व्यक्ति किस परिस्थिति में मृतप्राय हो जाता है?’ प्रश्न गंभीर था, लेकिन गुरु ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया- ‘जब व्यक्ति अपने सपनों को त्याग देता है, तब वह जीवित होते हुए भी मृतप्राय हो जाता है।’ जीवन की वास्तविकता यही है। व्यक्ति तभी तक जीवित है, जब तक उसके सपनों में जान है, उसका कोई लक्ष्य विद्यमान है। एक लक्ष्य विहीन व्यक्ति जीवित होते हुए भी मृतप्राय है।

वर्तमान समय में वैश्विक महामारी से व्यक्ति अकाल काल के गाल में समा रहे हैं। पर एक गंभीर समस्या दृष्टिगोचर हो रही है। युवाओं द्वारा अपने सपनों और लक्ष्यों का त्याग। यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा होता है कि वह सपना, जिसे हमने वर्षों पहले देखा था, अपने मन-मस्तिष्क में संजोए रखा था, क्या वह नींद के बाद आने वाला सपना था! या वह सपना जो हमें नींद से जगाए, कर्म करने के लिए प्रेरित करे, चाहे लाख संकट जीवन में आए, पर हमें अपने कर्तव्य पथ पर बनाए रखे, वह हमारा अपना सपना है! हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या उन सपनों के बगैर हमारा जीवन संतुष्टिदायक और सुखमय हो सकता है! अगर नहीं तो तोड़ दें सारे मोह, बंधन और माया और लग जाएं अपने सपनों को वास्तविक रूप देने में। यह जरूरी नहीं कि एक दिन में सफलता मिले, लेकिन यह निशिचत है कि एक दिन सफलता जरूर मिलेगी।

राष्ट्रकवि दिनकर ने सही कहा है- ‘मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी बन जाता है।’ अपने सपनों को सदैव जीवित रखना चाहिए, चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों। किसी ने सही कहा है कि ‘एक लक्ष्यविहीन व्यक्ति और पशु में कोई अंतर नहीं होता है।’
’शुभम मेश्राम, बरघाट, मप्र