‘नफरत के विरुद्ध’ (संपादकीय, 16 जनवरी) पढ़ा। किताब, पत्र-पत्रिका पढ़ने की छूटती आदत ने लोगों को एक तरह की अशांति और अस्थिरता के गर्त में धकेल दिया है। आज के समय में दर्शक उस चैनल को देखना चाहते हैं, जहां शोर-शराबा और जोर-शोर से चर्चा हो रही हो। अगर किसी टीवी चैनल पर शांतिपूर्ण तरीके से चर्चा चलती है तो दर्शक मान लेते हैं कि कोई मामूली बात है, इसलिए गरमागरम बहस नहीं हो रही है और इसलिए वे चैनल को बदल देते हैं।

विडंबना यह है कि कार्यक्रम में जहां गरमागरम बहसें चलती हैं, ध्यान शायद ही कभी समझाने और मामले को समझने पर होता है। मुख्य बिंदु दोषारोपण का खेल बन जाता है, ताकि भागीदारों को गलत साबित किया जा सके या बस उनके साथ बहस की जा सके।

दर्शक अब मुद्दे को समझना नहीं चाहते हैं। वे पहले मामले को जानने के बजाय किसी व्यक्ति की राय जानना चाहते हैं। अगर हम दर्शकों से पूछें कि किसी विशेष समाचार या चर्चा को देखने के बाद उन्हें क्या जानकारी मिली, क्या समझ में आया, तो वे पक्ष या विपक्ष में एक पक्ष लेंगे। लेकिन बहुत कम लोग वास्तव में यह जान पाएंगे कि समस्या क्या है या इससे निपटने के लिए अब क्या किया जाना चाहिए।

कोई ऐसा संस्था होनी चाहिए जो टीवी के इन समाचारों की निगरानी करे और फिर सनसनी पैदा करने से रोके। इसका उद्देश्य लोगों को सूचित करना, शिक्षित करना और जागरूक करना है, न कि उन्हें डराना है। लोगों को भी ऐसे टीवी चैनलों को देखना बंद करना चाहिए जो सनसनीखेज तरीके से समाचार दिखाने की गलती करते हैं। जब लोग ऐसे कार्यक्रम देखते रहते हैं, तो वे उसकी टीआरपी में योगदान करते हैं और खराब प्रथाओं को बढ़ावा देते हैं।

  • ऐश्वर्या राय निगम, जम्मू