कुछ लोग खुद को स्थापित करने के चक्कर में मुद्दों तलाशते रहते हैं। खैर, मुद्दों में दम हो तो कोई बात नहीं, लेकिन जब मुद्दों बेमतलब के हों तो उन्हें उछालने वालों पर हंसी आती है और थोड़ी-सी नाराजगी भी होती है। ऐसा ही एक मुद््दा गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी बोली को लेकर पिछले कुछ वर्षों से और विशेषकर उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद मैदानी भागों में रोजी-रोटी कमाने वाले कुछ पर्वतीय बुद्धिजीवी उठाते चले आ रहे हैं।
अपनी बोलियों से प्यार होना चाहिए लेकिन देश की सैकड़ों बोलियां संविधान की आठवीं अनसूची में शामिल हों, यह कतई उचित नहीं है। भाषा के आधार पर होने वाले विभाजन हमें पहले ही बहुत नुकसान पहुंचा चुके हैं। एक बात और, ऐसे कई बुद्धिजीवियों के बच्चे तो दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में रहते हुए अब गांव से पधारे ताऊ को भी अंकल और ताई को आंटीजी बोलते हैं। बहरहाल, सभी अपनी-अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हैं, पर दुख इस बात का है कि लोग खुद को पहाड़ों का अधिक हितैषी दिखाने के चक्कर में कुतर्कों का सहारा लेने से नहीं चूकते। क्या हमारे बच्चे आज सभी विषयों से संबंधित अपनी पूरी पढ़ाई गढ़वाली, कुमाऊंनी या जौनसारी में कर सकते हैं? सीधा जवाब है, नहीं।
तो फिर उन्हें भाषा के नाम पर बरगलाना कतई उचित नहीं। खूब गीत लिखो और खूब अपनी बोली में बात करो, किसी को भला क्या एतराज! लेकिन अपनी रोजी-रोटी का पूरा इंतजाम करने के बाद बेमतलब के मुद््दों से प्रदेश के विकास को न रोकें। नदियों को पार करने के लिए पुल चाहिए; पुलियों से तो सिर्फ नाले पार किए जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदी भाषा में डी.लिट की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले शोधार्थी डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल (13 दिसंबर, 1901-24 जुलाई, 1944) उत्तराखंड से थे।
’सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, दिल्ली