आमतौर पर देखा गया है कि राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में समय-समय पर विषय विशेष को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण से बयानबाजी की जाती है। अनवरत रूप से चलने वाला यह सिलसिला आम नागरिकों को किसी भी विषय पर अपना स्वतंत्र अभिमत नहीं बनाने देता। राजनेताओं द्वारा आरोप-प्रत्यारोप की प्रक्रिया को ही राजनीतिक धर्म मानते हुए सक्रिय राजनीति का पर्याय समझ लिया गया है। ऐसी स्थिति में आम नागरिकों का वास्तविकता से नाता टूटता जा रहा है। अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग तर्क, विषय विशेष को लेकर अलग अलग व्याख्या करते हैं।
ऐसे में स्वाभाविक रूप से किसी भी विषय का सर्वमान्य प्रतिपादन कतई संभव नहीं होता। नतीजतन भ्रमित होना आम नागरिकों की नियति बन गई है। आज स्थिति यह है कि किसी भी विषय या मुद्दे पर अलग-अलग विचारधाराएं अपने अलग-अलग पूर्वाग्रह के आधार पर किसी नतीजे पर पहुंचती हैं। राजनीति में तर्क-वितर्क का स्थान कुतर्क ने ले लिया है। अब वह समय नहीं रहा जब राजनीति में उच्चस्तरीय आदर्शों का पालन होता था। आए दिन राजनीतिकों के उलजलूल बयानों से लोकतंत्र में राजनीतिक मयार्दाएं तार-तार होती जा रही हैं। अनर्गल प्रलापों का सिलसिला निरंतर जोर पकड़ता जा रहा है। राजनीति में शुचिता और पवित्रता बीते दौर की बात होती जा रही है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्ति की चाह में नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया गया है।
वर्तमान दौर में हवा में तैरते आरोप हर एक को संदेह के दायरे में लिए हुए हैं। लगभग यही स्थिति सामाजिक जीवन में भी दिखाई देती है। अलग-अलग परंपराएं और रीति-रिवाजों को अपने-अपने पूर्वाग्रह के आधार पर आकलित किया जा रहा है। व्यावहारिक धरातल पर आम नागरिकों का राजनीतिक दृष्टिकोण जातीय और क्षेत्रीय आधार पर निर्धारित हो रहा है। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नागरिकों का इतना ध्यान केंद्रित नहीं है कि वे बड़ी सोच लेकर चल सकें। ऐसे में छोटे-छोटे कारण ही बड़े परिवर्तन के जनक सिद्ध होते रहे हैं।
जो जिसका नेतृत्व करता है, वह उसे अपने तौर तरीके से हांक रहा होता है। उथली सोच के आधार पर नेतृत्व का चयन, राजनीति में उच्चस्तरीय आदर्शों की स्थापना में बाधक सिद्ध हो सकता है। इन हालात में राजनीतिज्ञों के अनर्गल बोलों पर लगाम लगाना अत्यंत आवश्यक प्रतीत होता है। अन्यथा आरोप-प्रत्यारोप का ही सिलसिला चलता रहा तो आम नागरिकों से वास्तविकता का टूटता नाता नकारात्मक परिस्थिति का कारक सिद्ध हो सकता है।
इन दिनों राजनीति में सच को झूठ और झूठ को सच सिद्ध करने की भी होड़-सी मची है। ऐसे वैसे-चाहे जैसे जनमत का समर्थन हासिल कर लेना राजनेताओं का परम लक्ष्य बन गया है। लक्ष्य को पाने के लिए नैतिक-अनैतिक का भेद नहीं किया जाता। यह स्थिति लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं कही जा सकती। निरंकुश राजनेताओं ने मात्र अनर्गल प्रलाप के माध्यम से राजनीतिक परिस्थितियों को दूषित कर रखा है। इन परिस्थितियों के चलते आम नागरिक राजनीतिक दृष्टि से भ्रमजाल में उलझा हुआ दिखाई देता है। लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से यह स्थिति चिंताजनक ही है। अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते इन विचारणीय पहलुओं पर गौर नहीं किया जाना गहन चिंता का विषय है।
’राजेंद्र बज, देवास
रुलाती महंगाई
जनता त्रस्त और सरकार मस्त। बेरोजगारी चरम पर है। कोरोना महामारी में लोगों के रोजगार चला गया, लेकिन महंगाई नित नए रेकार्ड बना रही है। डीजल, पेट्रोल सौ रुपए के पार निकल चुके हैं। खाने वाले तेलों के दाम भी आसमान छू रहे हैं। दाल के रेट से पल्स रेट बढ़ रहा है तो गैस सिलेंडर के दाम से चूल्हा बुझ रहा है। इसका असर गरीब, निम्न और मध्य वर्ग के परिवारों पर पड़ रहा है। दूसरी ओर बंगलों में रहने वाले तमाशबीन हैं। महंगाई का असर राजनेताओं के यहां नहीं पड़ रहा है। इसलिए सरकार महंगाई से बेफिक्र है, क्योंकि जनता की बर्दाश्त करने की क्षमता बढ़ गई है और इतनी दुर्गति होने के बाद भी लोग सरकार का यशोगान करने से नहीं थक रहे हैं।
’प्रसिद्ध यादव, बाबुचक, पटना