राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीतने की खुशी अभी बनी हुई थी कि भारतीय खेलों पर संकट के बादल मंडराने की खबर आ गई। फीफा द्वारा अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ का निलंबन आने वाले आयोजनों पर भी प्रश्नचिह्न लगा गया। इसके साथ ही अब हाकी महासंघ पर भी ऐसे ही प्रतिबंध की तलवार लटकी नजर आ रही है। खेलों में हमारे उज्ज्वल भविष्य को देखते हुए सरकार को जल्द ही वांछित कदम उठाने चाहिए।

जिस प्रकार तीसरे पक्ष के गैरजरूरी दखल का हवाला देकर फीफा ने न सिर्फ महासंघ को निलंबित किया है, बल्कि ‘अंडर 17’ महिला विश्व कप की भारत से मेजबानी भी छीन ली है, वह निश्चित रूप से खेलों के पचासी वर्ष के इतिहास में काला दिन है। आज जबकि भारतीय खिलाड़ियों का दुनिया में दबदबा कायम होता जा रहा है, फीफा के इस कदम से खिलाड़ियों का उत्साह कमजोर हो सकता है। सरकार को इस मामले का संतोषजनक समाधान निकालना चाहिए, ताकि आगामी आयोजनों पर लगा ग्रहण समाप्त हो। सरकार की लेटलतीफी फुटबाल के साथ ही हाकी पर भी भारी पड़ सकती है।
अमृतलाल मारू ‘रवि’, इंदौर</p>

शिक्षा का हाल

बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का शुरू से कहना रहा है कि उनकी पहली प्राथमिकता शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार है। आज वे सत्ता में आ गए हैं। मंत्रिमंडल का भी विस्तार हो गया है। साथ ही खुशकिस्मती कहिए कि जो उनकी पहली प्राथमिकता थी- शिक्षा और स्वास्थ्य, उनकी पार्टी के मंत्री के ही जिम्मे ये दोनों विभाग आए हैं। सोने पर सुहागा यह है कि पूरे बिहार के स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी उनके कंधों पर है।

स्वास्थ्य के साथ-साथ शिक्षा भी एक अहम जिम्मेदारी है। आज बिहार की शिक्षा-व्यवस्था अन्य राज्यों के मुकाबले कितनी बदतर है, यह बताने की जरूरत नहीं। आज भी बिहार के स्कूलों में शिक्षकों के लाखों पद खाली हैं, पर पिछले तीन सालों से शिक्षित बेरोजगार, जो कि एक शिक्षक बनने के लिए सारी अहर्ताएं रखते हैं, सातवें चरण की प्रारंभिक शिक्षक बहाली को लेकर दर-दर भटक रहे हैं और विभाग की तरफ से सिर्फ और सिर्फ आश्वासन मिलता है।

उम्मीद है, उपमुख्यमंत्री शिक्षक बहाली की प्रक्रिया को जल्द से जल्द पूरा करके स्कूलों में खाली पदों को भरने का कार्य करेंगे, ताकि, बिहार के शिक्षा-व्यवस्था को सुधारा जा सके और एक शिक्षित बिहार का सपना पूरा हो सके।
सफी अंजुम, मधेपुरा

कश्मीर की हकीकत

संपादकीय ‘हिंसा की घाटी’ (17 अगस्त) पढ़ा। करीब तीन माह पूर्व फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को जबरदस्त प्रचार करके अनुचित ढंग से कश्मीर में हिंदू-मुसलिम नजरिए से दिखाया गया था। उस समय भी सोशल मीडिया पर इस तरह की गलत प्रस्तुति का विरोध करते हुए तथ्यों के साथ 1988-89 में घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन को पाक प्रायोजित आतंकवाद बताया गया था।

मगर फिल्म के भोंपू प्रचार में सच्चाई दब कर रह गई थी। अब पिछले तीन महीनों से रुक-रुक कर कश्मीर में जारी हिंसा से कश्मीर फाइल्स फिल्म का झूठ उजागर हो गया है। आतंकवादियों द्वारा कश्मीर में प्रवासी भारतीय मजदूरों तथा स्थानीय पंडितों की हत्याओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। कश्मीरी पंडित गत चार माह से अपनी सुरक्षा के लिए आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकार अनजान बनी बैठी है।

इसी संदर्भ में संपादकीय में टिप्पणी की गई है कि ये घटनाएं सरकार के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए, पर अफसोस कि सरकार बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों को टालने की तरह कश्मीर में जारी आतंकवाद पर भी उदासीन है। इस समय कश्मीर में केंद्र की शक्तिशाली सरकार का शासन है। अत: इसे भी ‘आल इज वेल’ कह कर कश्मीर के वर्तमान हालात से केंद्र सरकार का मुंह फेरना देश के लिए घातक सिद्ध होगा।
अमरनाथ बब्बर, किशनगंज, दिल्ली</p>